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________________ संघाट नामक दूसरा अध्ययन - कुख्यात चोर विजय ... १९६ वंचण - ठगी, णियडि - ढोंगीपन, कूड - माप-तौल में कम ज्यादा करने में चतुर, कवड - वेशभाषा आदि बदलकर छलना, साइसंपओगबहुले - अत्यधिक प्रयोग निपुण, जूयप्पसंगी - द्यूतव्यसनी, मज्जप्पसंगी - मदिरापान करने वाले, हिययदारए - हृदय विदारक, साहसिए - निःशंकतया चोरी करने वाला, संधिच्छेयए- सेंध लगाने वाला, उवहिए- मायाचारी, विस्संभघाईविश्वासघाती, आलीयग - आग लगाने वाला, तित्थभय - धर्म स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करने वाला, लहुहत्थसंपत्ते - हस्तलाघव युक्त-हाथ की सफाई में निपुण, अइगमणाणि - प्रवेश करने के रास्ते, णिग्गमणाणि - निकलने के रास्ते, दाराणि - दरवाजे, अवदाराणि - पीछे के दरवाजे, छिंडिओ - कांटेदार बाड़ के छिद्रों को, खंडिओ - किलों-दुर्गों के छिद्रों-छोटी खिड़कियों, णगरणिद्धमणाणि - नगर के जल निकास के नाले, संघट्टणाणि - अनेक मार्गों के मिलने के स्थान, णिव्वदृणाणि - नवनिर्मित मार्ग, जूवखलयाणि - जुए के अड्डे, पाणागाराणि - शराब खाने, वेसागाराणि - वेश्यालय, णागघराणि - नागदेव के पूजा स्थान, भूयघराणि - भूतगृह, जक्खदेउलाणि - यक्षायतन, पवाणि - जल प्रपाएँ-प्याऊ, पणियसालाणि - क्रय-विक्रय के स्थान, सुण्णघराणि - शून्य गृह, आभोएमाणे - चोरी की निगाह से देखता हुआ, मग्गमाणे - खोज करता हुआ, गवेसमाणे - बारीकी से देखता हुआ, छिद्देसु - स्खलना रूप छिद्रों में, विसमेसु - रोगादि विषम दशाओं में, विहुरेसु - संकटयुक्त अवस्था में, वसणेसु - विपत्तिकाल में, अब्भुदएसु - धन-वैभवादि प्राप्त होने के अवसरों में, उस्सवेसु - विवाह आदि उत्सवों पर, पसवेसु - जन्मोत्सवों पर, तिहिसु - विशेष तिथियों में होने वाले उत्सवों पर, छणेसु - आनंदोत्सवों पर, जण्णेसु - यज्ञों में, पव्वणीसु - पर्व दिवसों पर, मत्तपमत्त - उन्माद-प्रमाद युक्त, वक्खित्त - विक्षिप्त, वाउल- वात रोग युक्त,. सुहिय - सुखमग्न, दुहिय - दुःखित, विदेसत्थ - विदेश गया हुआ, विप्पवसिय - इष्ट जनों से बिछुड़ा हुआ, अंतरं - दूरी। . भावार्थ - राजगृह नगर में विजय नामक चोर था। वह घोर पापकारी, दिखने में चण्डाल जैसा, अत्यंत भयानक और क्रूर था। क्रुद्ध हुए पुरुष की तरह उसकी आँखें लाल रहती थी। उसकी दाढी कड़ी, कठोर, मोटी, विकृत और डरावनी थी। दांत लंबे होने के कारण उसके ओंठ परस्पर मिल नहीं पाते थे। उसके सिर के बाल बड़े-बड़े थे, हवा में उड़ते और बिखरते रहते थे। उसका रंग भंवरे तथा राहु (ग्रह विशेष) के समान काला था। उसके हृदय में जरा भी दया नहीं थी। कोई भी दुष्कर्म कर वह कभी पछताता नहीं था। बहुत ही दारुण था, अतः देखते ही डर लगता था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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