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प्रथम अध्ययन - गुणरत्नसंवत्सर तप की आराधना
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सण्णिगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहित्ता संलेहणाझूसणाए झूसियस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स पाओवगयस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए।
शब्दार्थ - सुहत्थि - गंध हस्ती, आरुहित्ता - अंगीकार कर, खामेत्ता - क्षमतक्षमापना कर, कडाईहिं - समाधिमरण में सहयोग करने वाले, थेरेहिं- स्थविरों से, विउलं पव्वयं- विपुलाचल पर, दुरुहित्ता - चढ़कर, मेहघण-सण्णिगासं - गहरे बादल के समान श्याम वर्णी, पडिलेहित्ता - प्रतिलेखन कर, संलेहणा झूसणाए - संलेखना स्वीकार कर, भत्तपाण-पडियाइक्खियस्स - आहार पानी का प्रत्याख्यान-त्याग कर, पाओवगयस्स - पादपोपगमन अनशन, कालं - मृत्यु, अणवकंखमाणस्स - आकांक्षा-इच्छा न करते हुए।
भावार्थ - तदनंतर अर्द्धरात्रि के समय धर्म जागरण करते हुए मेघकुमार के मन में ऐसा चिंतन, संकल्प उत्पन्न हुआ कि - .. उग्र, विपुल तप के कारण मेरा शरीर इतना कृश और दुर्बल हो गया है कि “मैं बोलूं"ऐसा प्रयत्न करते ही ग्लान हो जाता है। अभी मुझमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम, श्रद्धा एवं संवेग है। जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, जिनेश्वर भगवान् गंधहस्ति की तरह विचरणशील है, मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं रात बीतने पर, सुप्रभात काल होने पर, सूर्य के देदीप्यमान होने पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वंदन, नमस्कार कर, उनसे आज्ञा लेकर, स्वयं ही पांच महाव्रतों को पुनः अंगीकार कर, गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों एवं निर्ग्रन्थिनियों से क्षमत-क्षमापना कर, समाधि मरण में सहयोगी स्थविरों के साथ विपुलाचल पर धीरे-धीरे चढ़। स्वयं ही गहरे बादल के समान श्याम पृथ्वी शिलापट्ट का प्रतिलेखन, संलेखना स्वीकार कर, आहार-पानी का प्रत्याख्यान कर, पादपोपगमन अनशन धारण करूँ एवं मृत्यु की कामना न करते हुए स्थित रहूँ।
- (२०५) एवं संपेहेइ २ ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलते जेणेव समणे...... भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ णमंसइ, वं० २ त्ता णञ्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ।
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