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________________ १८० ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र काठ से भरी हुई गाड़ी चलती हुई, ठहरती हुई, खड़-खड़ की आवाज करती है, उसी प्रकार जब मेघकुमार चलता-ठहरता तो उसकी हड्डियाँ कड़-कड़ करतीं। उसका तप बढ रहा था, रक्त-मांसं घट रहे थे, क्षीण हो रहे थे। वह भस्म की राशि से ढकी हुई आग की तरह दिखाई देता था। तप-तेज और तजनित श्री (उससे होने वाली शोभा) से अत्यंत शोभित होता था। . (२०३) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे जाव पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणामेव रायगिहे णयरे जेणामेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। ___ भावार्थ - उस समय धर्म प्रवर्तक, तीर्थस्थापक भगवान् महावीर स्वामी यथाक्रम ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए राजगृह नगर में गुणशील चैत्य में पधारे। यथोचित अवग्रह-आवास हेतु स्थान की आज्ञा लेकर वहाँ ठहरे, संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते रहे। (२०४) तए णं तस्स मेहस्स अणगारस्स राओ पुव्वरत्तावरत्त-काल समयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं तहेव जाव भासं भासिस्सामित्ति गिलामि, तं अत्थि ता मे उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे सद्धा धिई संवेग तं जाव ता मे अस्थि उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे सद्धा धिई संवेगे जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ ताव ताव मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते सूरे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता णमंसित्ता समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णायस्स समाणस्स सयमेव पंच महव्वयाइं आरुहित्ता गोयमाइए समणे णिग्गंथे णिग्गंथीओ य खामेत्ता तहारूवेहिं कडाईहिं थेरेहिं सद्धिं विउलं पव्वयं सणियं २ दुरूहित्ता सयमेव मेहघण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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