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प्रथम अध्ययन - मेरुप्रभ द्वारा अनुकंपा एवं फल प्राप्ति
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उसी तरह स्थित हुए जैसे बिल में मकोड़े भर जाते हैं। मेघ! तब तुम उस मंडल में आए और उन बहुत से सिंहादि प्राणियों के साथ एक ओर जहाँ स्थान मिला, स्थित हुए। मेरुप्रभ द्वारा अनुकंपा एवं फल प्राप्ति
(१८३) तएणं तुमं मेहा! पाएणं गत्तं कंडुइस्सामी तिकट्ठ पाए उक्खित्ते, तंसि च णं अंतरंसि अण्णेहिं बलवंतेहिं सत्तेहिं पणोलिज्जमाणे २ ससए अणुप्पविठे। तए णं तुम मेहा! गायं कंडुइत्ता पुणरवि पायं पडिणिक्खमिस्सामि त्तिक? तं ससयं अणुपविठं पाससि २ त्ता पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए जीवाणुकंपयाए सत्ताणुकंपयाए से पाए अंतरा चेव संधारिए णो चेव णं णिक्खित्ते। तए णं तुम मेहा! ताए पाणाणुकंपयाए जाव सत्ताणुकंपयाए संसारे परित्तीकए माणुस्साउए णिबद्ध।
शब्दार्थ - गत्तं - गात्र-शरीर, कंडुइस्सामी - खुजलाऊँ, उक्खित्ते - ऊंचा किया, तंसि अंतरंसि - उस अंतराल में, उस समय में, पणोलिज्जमाणे - धकेला गया, अणुपविढे - अनुप्रविष्ट हुआ, पडिणिक्खमिस्सामि - वापस वहीं टिकाऊँ, अंतरा चेव - बीच में ही, संधारिए - रोक लिया, परित्तीकए - परिमित, स्वल्प किया, माणुस्साउए - मनुष्य का आयुष्य। .
भावार्थ - मेघ! तुमने तदनंतर अपने पैर से शरीर को खुजलाने हेतु उसे ऊँचा उठाया। उसी समय, उस खाली जगह में अन्य शक्तिशाली प्राणियों द्वारा धकेला जाता हुआ एक खरगोश आ गया। मेघ! तुमने देह खुजलाने के बाद ज्यों ही पैर वापस रखने का विचार किया, त्यों ही तुम्हारी दृष्टि उस खाली स्थान में बैठे हुए खरगोश पर पड़ी। तब तुमने प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्व अनुकंपा के भाव से-खरगोश को बचाने की दृष्टि से, पैर को बीच में ही रोक लिया, नीचे नहीं रखा।
मेघ! इस प्राणानुकंपा यावत् सत्त्वानुकंपा के कारण तुमने अपना संसार परिमित-स्वल्प "किया तथा मनुष्य का आयुष्य बाँधा।
विवेचन - जीवानुकम्पा एक शुभ भाव है-पुण्य रूप परिणाम है। वह शुभकर्म के बन्ध
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