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________________ १४२ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र जन्म-मरण को मिटाने के लिए सक्षम होगी। इसीलिए आप स्वयं मुझे प्रव्रजित एवं मुण्डित करें। मुझे सूत्र एवं अर्थ का ज्ञान दें, शिक्षित करें एवं मेरे लिए साधु-सम्मत आचार-धर्म का विस्तार से प्रतिपादन करें। (१६०) तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पव्वावेइ सयमेव आयार जाव धम्ममाइक्खइ-एवं देवाणुप्पिया! गंतव्वं चिट्ठियव्वं णिसीयव्वं तुयट्टियव्वं भुजियव्वं भासियव्वं एवं उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं. संजमियव्वं अस्सिं च णं अट्ठे णो पमाएयव्वं। ___तए णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उवएसं णिसम्म सम्म पडिवज्जइ तमाणाए तह गच्छइ तह चिट्ठइ जाव उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमइ। शब्दार्थ - गंतव्वं - चलना चाहिए, चिट्ठियव्वं - खड़े होना चाहिए, णिसीयव्वं - बैठना चाहिए, तुयट्टियव्वं - प्रमार्जन पूर्वक सोना चाहिए, भुंजियव्वं - आहार करना चाहिए, भासियव्वं - बोलना चाहिए, उठाए - उत्थित, उट्ठाय - उठकर, संजमियव्वं - संयम पूर्वक वर्तन-व्यवहार करना चाहिए, अस्सिं - हममें, आणाए - आज्ञा पूर्वक। भावार्थ - तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उसे प्रवर्जित किया तथा आचार विषयक धर्म का प्रतिपादन किया और कहा कि देवानुप्रिय! तुम्हें युग प्रमाण भूमि को देखते हुए चलना चाहिए। निर्वद्य एवं प्रमार्जित भूमि में खड़े होना चाहिए, बैठना चाहिए। बिछौने का तथा शरीर के वाम दक्षिण पार्यों का प्रमार्जन कर सोना चाहिए। संयमोद्दिष्ट शरीर-रक्षण हेतु भोजन करना चाहिए। हित-परिमित एवं निर्वद्य भाषा बोलनी चाहिए। इस प्रकार अप्रमत्त-सावधान होकर प्राण (विकलेन्द्रिय), भूत (वनस्पतिकाय) जीव (पंचेन्द्रिय) और सत्त्व (चार स्थावर) की रक्षा करके संयम का पालन करना चाहिए। इस साधना पथ में प्रमाद नहीं करना चाहिए। मेघकुमार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से यह धार्मिक उपदेश सुना, भली भांति स्वीकार किया, उनके आज्ञानुरूप यतनापूर्वक चलने, खड़े होने आदि में तत्पर हुआ तथा सभी प्राणियों के प्रति संयम पूर्वक व्यवहार करने में उद्यत हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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