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________________ - - प्रथम अध्ययन जराए मरणेण य । से जहाणामए केइ गाहावई अगारंसि - झियायमाणंसि जे तत्थ भंडे भवइ अप्पभारे मोल्लगुरुए तं गहाय आयाए एतं अवक्कमइ - एस मे णित्थारिए समाणे पच्छा पुरा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसार आणुगामियत्ताए भविस्सइ - एवामेव ममवि एगे आयाभंडे इट्ठे कंते पिए मणुण्णे मणामे एस मे णित्थारिए समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सइ, तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाहिं सयमेव पव्वावियं सयमेव मुंडावियं सेहावियं सिक्खावियं सयमेव आयार-गोयरविणय - वेणइय - चरण - करण-जायामाया-वत्तियं धम्ममाइक्खियं । आग गहाय शब्दार्थ - आलित्ते - आलिप्त - चारों ओर से लीपा हुआ, पलित्ते - प्रलिप्त - विशेष रूप से लिप्त, गाहावई - गाथापति - बड़ा व्यापारी, अगारंसि घर में, झियाय - माणंस लग जाने पर, भंडे - वस्तु, अप्पभारे - थोड़े भार से युक्त हल्की, मोल्ल - गुरुए - बहुमूल्य, ग्रहण कर, आयाए - लेकर, णित्थारिए - निःसृत करता है - निकालता है, खमाए समुचित सुख - सामर्थ्य हेतु, णिस्सेसाए - निःश्रेयस - - कल्याण के लिए, आणुगामियत्ताए · आने वाले समय में, आयाभंडे संसार का उच्छेदनाश करने वाली, पव्वावियं प्रव्रजित, मुंडावियं- मुंडित, सेहावियं - सेधित - सूत्रार्थ ग्राहित, सिक्खावियं - शिक्षित, आयार - मर्यादानुसार आचरण, गोयर - भिक्षाटन, विणयअभिवादनादि क्रियोपचार, वेणइय - वैनयिक- विनय जनित कर्मक्षय आदि, चरण - महाव्रतादि साध्वाचार, करण - पिंडविशुद्धि आदि, जाया तप-संयम आदि में प्रवृत्ति रूप जीवन यात्रा, माया मात्रा - संयम निर्वाह हेतु आहारादि के परिमाण का ज्ञान, आइक्खियं आख्यात आत्मरूप वस्तु, संसारवोच्छेयकरे Jain Education International - - - - अनगार - दीक्षा - - For Personal & Private Use Only १४१ - प्ररूपित करें। भावार्थ फिर मेघकुमार ने स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया । वैसा कर वह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निकट आया । उनकी तीन बार आदक्षिण- प्रदक्षिणा की, वंदन एवं नमन किया तथा इस प्रकार निवेदन किया भगवन्! यह लोक जरा तथा मरण आदि से आलिप्त - प्रलिप्त है। जैसे किसी गाथापति के घर में आग लग जाय तो वह उसी वस्तु को जो भार में हल्की हो तथा बहुमूल्य हो, एकांत स्थान में रखता है, वह जानता है कि यह मेरे लिए आगे-पीछे भविष्य में सुखप्रद होगी, निर्वाह में उपयोगी एवं कल्याण कर होगी। उसी प्रकार मेरी भी यह आत्मा रूपी वस्तु मेरे लिए इष्ट, कांत, प्रिय एवं मनोज्ञ है। संसार नाश के लिए, - www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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