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________________ १२८ - ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र + + ऐसा माना जाता है कि प्राचीनकाल में देवप्रभाव युक्त ऐसी दुकानें होती थी, जिनमें तीनों लोकों में पायी जाने वाली वस्तुएँ मिलती थीं। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक प्रकार की, छोटी से छोटी वस्तु से लेकर बड़ी से बड़ी वस्तु वहाँ मिलती थी। ___इस देवाधिष्ठित दुकान में दीक्षार्थी योग्य सभी उपकरण सुलभता से मिल जाने से अन्य दुकानों की अपेक्षा इसका महत्त्वपूर्ण स्थान था। दुकान के संचालक योग्य मनुष्य होते थे। लाभ आदि का भागीदार वह होता था। भगवान् की विद्यमानता में एवं उनके शासनकाल के कुछ काल तक वे दुकानें प्रायः साधु के विचरण क्षेत्र में अनेक स्थानों पर हुआ करती थी। देव सहायता से अन्यत्र मिलने वाली वस्तुएं भी वहाँ पर उपस्थित कर दी जाती थी। आवश्यकता । होने पर देव औदारिक पुद्गलों से वस्तु का निर्माण भी कर सकते थे। विवेचन - दीक्षा आदि मंगल प्रसंगों पर नौकर आदि लोगों को भी प्रसन्नता से विपुल सम्पत्ति उपहार रूप में प्रदान की जाती थी। इसी कारण से यहाँ भी इस दीक्षा के मंगल प्रसंग पर नाई को एक लाख स्वर्णमुद्राएं प्रदान की गई। इस प्रकार देने में राजाओं के और भी अनेक उद्देश्य हुआ करते थे। ___ यहाँ पर रजोहरण एवं पात्र संयम के प्रमुख उपकरण होने से इनका नाम बताया है। उपलक्षण से संयमोपयोगी सभी उपकरणों का इसमें ग्रहण होना समझ लेना चाहिए। - प्रव्रज्या की पूर्वभूमिका (१३६) तए णं से कासवए तेहिं कोडुंबियपुरिसेहिं सद्दाविए समाणे हट्टतुट्ठ जाव हयहियए ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगल-पायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिए अप्पमहंग्याभरणालंकियसरीरे जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सेणियं रायं करयलमंजलिं कटु एवं वयासी-“संदिसह णं देवाणुप्पिया! जं मए करणिज्जं।" ___तएणं से सेणिए राया कासवयं एवं वयासी- “गच्छाहि णं तुमं देवाणुप्पिया! सुरभिणा गंधोदएणं-णिक्के हत्थपाए पक्खालेहि सेयाए चउप्फालाए पोत्तीए मुहं बंधित्ता मेहस्स कुमारस्स चउरंगुल-वज्जे णिक्खमण-पाउग्गे अग्गकेसे कप्पेहि।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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