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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
है। वह वैसा ही है, जैसा आपने फरमाया। भगवन्! केवल इतना सा निवेदन है, मैं माता-पिता की आज्ञा ले लूँ, तत्पश्चात् मुंडित होकर प्रव्रज्या ग्रहण करूँगा। __ भगवान् ने कहा - देवानुप्रिय! जिससे तुम्हें सुख हो, तुम्हारी आत्मा को शांति प्राप्त हो, वैसा करो। विलम्ब मत करना।
विवेचन - मेघकुमार अपने युग के महान् समृद्धिशाली, वर्चस्वी, तेजस्वी और शक्तिशाली मगध नरेश श्रेणिक का पुत्र था। उसके वैभव की सीमा नहीं थी। आठ-आठ सुंदर पत्नियों का वह पति था। दिन-रात संगीत, नाट्य, खान-पान एवं भोग-विलास आदि सभी ऐहिक सुखों की सुविधाएँ उसे प्राप्त थीं।
राजगृह में भगवान् महावीर का पदार्पण होने पर वह पहली बार उनके दर्शन करता है। भगवान् के अतिशय, उनके त्याग, तपोमय-तेजोमय विराट् व्यक्तित्व, अद्भूत वैराग्य छटा तथा निश्चल प्रशांत-भाव को देखता है। यह भी देखता है कि संयम के समक्ष दिव्य शक्तियाँ भी नतमस्तक हैं। भीतर ही भीतर वह सहसा आंदोलित हो उठता है। श्रद्धा, आदर और भक्ति से भगवान् के चरणों में झुक जाता है। भगवान् की धर्म-देशना सुनता है। एक ही बार में इतना प्रभावित होता है कि वैभव और मोहमाया मय जगत् का परित्याग कर संयममय जीवन अपनाने को उत्साहित हो उठता है। ____बड़ा आश्चर्य है, विपुल भोगमय जीवन जीने वाले व्यक्ति के मन में सहसा यह परिवर्तन क्यों आ जाता है?क्योंकि दूसरी ओर ऐसा भी देखा जाता है कि दीर्घकाल पर्यंत धर्म-प्रवचनश्रवण करते रहने पर भी मन नहीं बदलता। संसार में रमा रहता है। वहाँ धर्म-प्रवचन कुछ काल के लिए मन के रंजक मात्र रह जाते हैं। मेघकुमार भी एक मानव था, दूसरे भी मानव हैं। फिर इतना बड़ा अंतर क्यों है, धार्मिक जगत् के समक्ष एक प्रश्न है? ___ यद्यपि पूर्वतन संस्कार कर्मों का हलकापन-पतलापन इत्यादि तो इसके कारण हैं ही किंतु इन सबसे बढ़ कर एक महत्त्वपूर्ण कारण उपदेष्टा का स्वयं का जीवन है। परम त्यागी, वैरागी, सद्वती, तपोनिष्ठ, साधना-निष्णात, आर्जव, मार्दव, औदार्य आदि गुणों से संपन्न उपदेष्टा के मुँह से जो वाणी निकलती है, उसमें चाहे शाब्दिक आलंकारिकता या बाह्य सुंदरता न भी हो तो भी एक ऐसा ओज एवं तेज होता है कि सहसा वह श्रोतृवृंद पर प्रभाव डालती है। भगवान् महावीर स्वामी का व्यक्तित्व ऐसी ही अपरिसीम आध्यात्मिक विराट्ताओं से संवलित था। यही कारण है कि उनकी धर्म-देशना तत्काल श्रोताओं को प्रभावित करती। केवल मेघकुमार ही नहीं,
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