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प्रथम अध्ययन - प्रव्रज्या का संकल्प
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बीच, जीव किस प्रकार कर्मबद्ध होते हैं, किस प्रकार कर्म-मुक्त होते हैं तथा किस प्रकार स्वकृत कर्मों के कारण घोर कष्ट पाते हैं इत्यादि का विवेचन किया। अन्य आगमों में इस संदर्भ में आया हुआ वर्णन यहाँ ग्राह्य है। उपदेश सुनकर जन समूह वापस लौट गया।
. प्रव्रज्या का संकल्प
- (११५) तए णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म हट्ट तुढे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ णमंसइ, वं० २ त्ता एवं वयासी-“सद्दहामि णं भंते! णिग्गंथं पावयणं एवं पत्तियामि णं, रोएमि णं, अन्भुट्टेमि णं भंते! णिग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते! तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! इच्छिमेयं भंते! पडिच्छियमेयं भंते! इच्छियपडिच्छियमेयं भंते! से जहेव तं तुब्भे वयह, जं णवरं देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि, तओ पच्छा मुंडे भवित्ता णं पव्वइस्सामि।" "अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह।"
शब्दार्थ - सद्दहामि - श्रद्धा करता हूँ, णिग्गंथं - निग्रंथ-राग-द्वेषादि ग्रंथि रहित, पावयणं - प्रवचन, पत्तियामि - प्रतीति करता हूँ, रोएमि - रुचि करता हूँ, अब्भुट्टेमि - अभ्युत्थित-पालनार्थ उद्यत होता हूँ, एवमेयं - ऐसा ही है, तहमेयं - तथ्यपूर्ण-युक्ति युक्त, अवितहमेयं - अवितथ-सत्य प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अबाधित, इच्छिय - इष्ट-अभिलषित, पडिच्छिय - प्रतीच्छित-विशेष रूप से वांछित, वयह- कहते हैं, णवरं - केवल, आपुच्छामिपूछ लूँ, पश्चात्, मुंडे - मुंडित, पव्वइस्सामि- प्रव्रज्या ग्रहण करूंगा, अहासुहं - यथा-सुख, पडिबंधं - विलम्ब।
भावार्थ - मेघकुमार श्रमण भगवान महावीर स्वामी से धर्म का श्रवण कर बहुत ही हर्षित और परितुष्ट हुआ। उसने भगवान् को विधिवत् तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा पूर्वक वंदन किया, नमस्कार किया और कहा - भगवन्! मेरे मन में निग्रंथ प्रवचन के प्रति श्रद्धा, प्रतीति एवं अभिरुचि उत्पन्न हुई है। मैं उस दिशा में आगे बढ़ने हेतु उद्यत हूँ। भगवन्! निग्रंथ प्रवचन जैसा आपने उपदिष्ट किया, वैसा ही है। वह तथ्य, सर्वथा सत्य, अबाधित है। वह अत्यंत वांछित
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