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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
भावार्थ - जब मेघकुमार ने देखा कि बहुत से उग्रवंशीय, भोगवंशीय आदि विशिष्ट जन एक दिशा की ओर जा रहे हैं तो उसने कंचुकी पुरुष को बुलाया और कहा कि देवानुप्रिय! क्या आज राजगृह नगर में इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, कुबेर आदि किन्हीं देवों से अथवा किसी नदी, सरोवर, पर्वत यात्रा आदि से संबद्ध कोई महोत्सव है, जिससे ये लोग एक ही दिशा की ओर जाते हुए दिखलाई दे रहे हैं?
(१११) तए णं से कंचुइज-पुरिसे समणस्स भगवओ महावीरस्स गहिया-गमणपवित्तीए मेहं कुमारं एवं वयासी-णो खलु देवाणुप्पिया! अज रायगिहे णयरे इंदमहेइ वा जाव गिरिजत्ताइ वा जं णं एए उग्गा जाव एगदिसिं एगाभिमुहा णिग्गच्छंति एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे इह चेव रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरइ।
शब्दार्थ - आगमणपवित्तिए - आने का वृत्तांत, समोसढे - समवसृत हुए हैं-पधारे हैं।
भावार्थ - तब कंचुकी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के आगमन का वृत्तांत जानकर मेघकुमार को इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! आज राजगृह नगर में इन्द्र महोत्सव एवं पर्वत यात्रा आदि से संबद्ध कोई महोत्सव नहीं है। लोग किसी महोत्सव को उद्दिष्ट कर नहीं जा रहे हैं। धर्म-तीर्थ के एतद्युगीन आद्य-प्रणेता, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी समवसृत हुए हैं, पधारे हैं। वे गुणशील चैत्य में यथोचित अवग्रह मर्यादानुमोदित स्थान याचित कर विराजे हैं।
(११२) तए णं से मेहे कुमारे कंचुइज्जपुरिस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्ट तुढे कोडुंबिय पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्गघंटं आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह तहत्ति उवणेति।
शब्दार्थ - चाउग्घंटे - चारों और घंटाओं से युक्त, आसरहं - अश्वरथ, जुत्तामेव - जोड़कर, उवट्ठवेह - उपस्थित करो।
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