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________________ . प्रथम अध्ययन - देव का प्राकट्य सौगंधिक ज्योति, अंक, अंजन, रंजन, जातरूप, अंजन, पुलक, स्फटिक तथा रिष्ट संज्ञक रत्नों के यथा बादर असार पुद्गलों का परित्याग किया, यथा सूक्ष्म सारमय पुद्गलों को ग्रहण किया। फिर उत्तर वैक्रिय शरीर निर्मित किया। अभयकुमार पर उसके मन में अनुकंपा का भाव जागृत हुआ। पूर्व भव में उत्पन्न स्नेह, प्रीति और गुणानुराग के कारण वह अपने मित्र अभय की व्यथा से खिन्न हुआ। उत्तम रत्नमय श्वेतकमलोपम विमान से निकलकर धरती पर जाने हेतु शीघ्रतापूर्वक दिव्यगति से चला। उस समय वह सोने के पतले पात से बने हिलते हुए कर्ण पत्र तथा तीव्र आभामय मुकुट के कारण बड़ा ही दर्शनीय प्रतीत होता था। वह स्वर्ण निर्मित, मणिरत्न जटित कटि सूत्र पहने बड़ा हर्षित था। कानों से लटकते हुए श्रेष्ठ, मनोहर कुण्डलों से प्रोज्ज्वल मुख दीप्ति के कारण उसका रूप बड़ा सौम्य प्रतीत होता था। ऐसा लगता था मानो कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि में शनि और मंगल ग्रह के मध्य शारदीय चंद्र उदित हो रहा हो, नेत्रों के लिए बड़ा आनंद प्रद था। दिव्य औषधियों के प्रकाश से उद्योतित, समस्त ऋतु शोभा से परिव्याप्त, सर्वत्र प्रसृत सुगंध से मनोज्ञ, मेरू पर्वत की ज्यों वह द्युतिमान, कांतिमान था। वैक्रिय लब्धिजनित विचित्र वेशयुक्त दिव्यरूपधारी वह देव, असंख्य परिमाण और नामयुक्त द्वीपों और समुद्रों के बीचोंबीच होता हुआ, अपनी निर्मल प्रभा से तिर्यक्लोक को प्रकाशित करता हुआ, राजगृह नगर में अभयकुमार के समीप पहुंचा। _ (७०) तए णं से देवे अंतलिक्खपडिवण्णे दसद्धवण्णाई सखिंखिणियाई पवर वत्थाई परिहिए। (एक्को ताव एसो गमो। अण्णोऽवि गमो) ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सीहाए उद्धयाए जयणाए छेयाए दिव्वाए देवगईए जेणामेव जंबुद्दीवे २ भारहे वासे जेणामेव दाहिणद्धभरहे रायगिहे णयरे पोसहसालाए अभए कुमारे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवण्णे दसद्धवण्णाई सखिखिणियाई पवरवत्थाई परिहिए अभयं कुमार एवं वयासी - . शब्दार्थ - अंतलिक्खपडिवण्णे - आकाश में स्थित, दसद्धवण्णाई - पाँच वर्ण युक्त, सखिंखिणाई - धुंघरु युक्त, पवर वत्थाई - उत्तम वस्त्र, उक्किट्ठाए - उत्कृष्ट, चंडाए - प्रचंड-अतिवेगयुक्त, सीहाए - शीघ्र, उद्धयाए - औत्सुक्यवश अत्यंत तीव्र, जयणाए - कार्य साफल्यसूचक, छेयाए - छेक-निर्विघ्न-कुशल। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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