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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
भावार्थ - अंतरिक्ष में विद्यमान, धुंघरु युक्त, पाँचवर्णों के उत्तम वस्त्र धारण किए हुए, वह देव अभयकुमार के पास आया। (अभय कुमार के पास देव के आगमन का यह एक प्रकार का गम-पाठ है। इस संबंध में दूसरे प्रकार का निम्नकित पाठ भी है।) ___ आकाश में स्थित, सुन्दर पाँच वर्गों के वस्त्र पहने हुए, जिनमें घुघुरु लटक रहे थे, वह देव उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, शीघ्र, औत्सुक्यपूर्ण, साफल्यसूचक, निर्विघ्न, दिव्यगति द्वारा जंबूद्वीपभारत वर्ष के अंतर्गत, दक्षिणार्द्ध भरत में, राजगृह नगर में, पौषधशाला में, अभयकुमार के निकट पहुँचा।
. विवेचन - उपर्युक्त वर्णन में आये हुए “दसद्धवण्णाई सखिखिणाई पवरवत्थाई" पाठ का आशय इस प्रकार समझना चाहिए - “पहने जाने वाले एक ही वस्त्र में पांचों वर्गों का मिश्रण है तथा जो धुंघरु (छोटी-छोटी घण्टिकाओं) से युक्त है, ऐसा श्रेष्ठ वस्त्र।"
(७१) अहं णं देवाणुप्पिया! पुव्वसंगइए सोहम्मकप्पवासी देवे महड्डिए जं णं तुमं पोसहसालाए अट्ठमभत्तं पगिण्हित्ता णं ममं मणसीकरेमाणे २ चिट्ठसि, तं एस णं देवाणुप्पिया! अहं इहं हव्वमागए। संदिसाहि णं देवाणुप्पिया! किं करेमि? किं दलामि? किं पयच्छामि? किं वा ते हिय-इच्छियं?
शब्दार्थ - इहं - यहाँ, हव्वं - शीघ्र, संदिसाहि - बतलाओ, दलामि - दूँ, पयच्छामिप्रदान करूँ, हिय - हृदय। _भावार्थ - देवानुप्रिय! मैं तुम्हारा पूर्वभव का मित्र, सौधर्मकल्पवासी, परम ऋद्धिशाली देव हूँ। तुम पौषधशाला में तेले का तप स्वीकार कर, मन में मुझे स्मरण करते हुए स्थित रहे। इसलिए मैं यहाँ शीघ्र आया हूँ। देवानुप्रिय! बतलाओ मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ, क्या दूँ? क्या उपहृत करूँ? क्या प्रदान करूँ? तुम मुझसे क्या हित साधना चाहते हो। तुम्हारे मन में क्या इच्छा है?
(७२) तए णं से अभए कुमारे तं पुव्वसंगइयं देवं अंतलिक्ख-पडिवण्णं पासइ, पासित्ता हट्टतुठे पोसहं पारेइ, पारेत्ता करयल जाव अंजलिं कटु एवं वयासी
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