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________________ ७६ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ५, हंसगब्भाणं ६, पुलगाणं ७, सोगंधियाणं ८, जोइरसाणं ६, अंकाणं १०, अंजणाणं ११, रययाणं १२, जायरूवाणं १३, अंजण पुलगाणं १४, फलिहाणं १५, रिट्ठाणं १६, अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ २ त्ता अहासुहुमे पोग्गले परिगिण्हइ २ त्ता अभयकुमार-मणुकंपमाणे देवे पुव्वभव-जणियणेह-पीइबहुमाण-जायसोगे तओ विमाणवर-पुंडरीयाओ रयणुत्तमाओ धरणियल-गमण-तुरिय-संजणियगमणपयारो वाघुण्णिय-विमल-कणग-पयरग-वडिंसग-मउडुक्कडाडोव, दंसणिज्जो अणेगमणि-कणगरयण-पहकर-परिमंडिय-भत्तिचित्त-विणिउत्तमणुगुणजणियहरिसे खोलमाण-वरललिय-कुंडलुज्जलिय-वयण-गुण-जणियसोमरूवे उदिओ विव कोमुदीणिसाए सणिच्छरंगार उजलिय-मज्झभागत्थे णयणाणंदो सरयचंदो दिव्वोसहि-पज्जलुज्जलिय-दसणाभिरामो उउलच्छि-समत्त-जायसोहे पइट्ठ-गंधुद्धयाभिरामे मेरुरिव णगवरो विउव्वियविचित्तवेसे दीवसमुद्दाणं असंखपरिमाण-णामधेज्जाणं मज्झयारेणं वीइवयमाणो उज्जोयंतो पभाए विमलाए जीवलोयं रायगिहं पुरवरं च अभयस्स य तस्स पासं ओवयइ दिव्वरूवधारी। शब्दार्थ - रिट्ठाणं - श्याम रत्न, अहाबायरे - यथा बादर-सार रहित पुद्गलों का, परिसाडेइ - परिशाटन-परित्याग करता है, अहासुहुमे - यथा सूक्ष्म-सारभूत पुद्गल, अणुकप्पमाणे- अनुकंपा करता हुआ, विमाणवरपुंडरियाओ - श्वेत कमल सदृश अति उत्तम विमान, वाघुण्णिय- व्याघूर्णित-हिलते हुए, पयरग - पात (सोने के पतले पात), उक्कडाडोवउत्कट आटोप-मन को आकर्षित करने वाली विशिष्ट सज्जा, विणिउत्त - विनियुक्त-धारण किए हुए, अणुगुण - अनुगण-करघनी, पेंखोलमाण - दोलायमान-हिलते हुए, कोमुदीणिसाए - कार्तिक पूर्णिमा, सणिच्छरंगार- शनि और मंगल, सरयचंदो - शरद् ऋतु का चंद्रमा, दिव्वोसहिदिव्यौषधियां-जड़ी बूंटियां, पज्जलुज्जलिय - प्रज्वलित, लच्छि - लक्ष्मी, पइट्ठ - प्रकृष्टउत्तम, उद्धय - सर्वत्र फैली हुई, विउव्वियविचित्तवेसे - वैक्रियलब्धि द्वारा रचित विचित्र वेश युक्त, दीवसमुद्दाणं - द्वीपों और समुद्रों को, णामधेज्जाणं - नाम धारण करने वाले, वीइवयमाणो - दिव्यगति से चलता हुआ, ओवयइ - अवतरित होता है। भावार्थ - सौधर्म कल्पवासी देव ने हीरे, वैडूर्य, लोहिताक्ष, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलक, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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