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________________ ४० जीवाजीवाभिगम सूत्र ते णं तोरणा णाणामणिमयखंभेसु उवणिविट्ठसण्णिविट्ठा विविहमुत्तरोवचिया विविहतारारूवोवचिया ईहामियउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवइरवेइयापरिगयाभिरामा विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्ताविव अच्चिसहस्समालणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणां भिब्भिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाईया ४।। भावार्थ - वे तोरण नाना प्रकार की मणियों के बने हुए हैं, नाना मणियों के बने हुए स्तंभों पर स्थापित हैं, निश्चल रूप से रखे हुए हैं, अनेक प्रकार की रचनाओं से युक्त मोती उनके बीच में लगे हुए हैं। वे तोरण विविध ताराओं से सुशोभित हैं। उन तोरणों में ईहामृग (मृग विशेष), बैल, घोड़ा, मनुष्य, मगर, पक्षी, व्याल, किन्नर, मृग, सरभ, हाथी, वनलता और पद्मलता के चित्र बने हुए हैं। इन तोरणों के स्तंभों पर वज्रमयी वेदिकाएं होने से वे बहुत ही सुंदर लगते हैं। समश्रेणी विद्याधरों के युगलों की विशिष्ट शक्ति के प्रभाव से ये तोरण हजारों किरणों से प्रभासित हो रहे हैं, हजारों रूपकों से युक्त हैं, दीप्यमान हैं, विशेष दीप्यमान हैं, देखने वालों के नेत्र उन तोरणों पर टिक जाते हैं। उनका स्पर्श बहुत ही शुभ तथा उनका रूप बहुत ही शोभायुक्त लगता है। वे तोरण प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। तेसि णं तोरणाणं उप्पिं बहवे अट्ठमंगलगा पण्णत्ता, तं०-सोत्थियसिरिवच्छणंदियावत्तवद्धमाणभदासणकलसमच्छदप्पणा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा। तेसि णं तोरणाणं उप्पिं बहवे किण्हचामरज्झया णीलचामरज्झया लोहियचामरज्झया हालिद्दचामरज्झया सुक्किल्लचामरज्झया अच्छा सण्हा रुप्पपट्ठा वइरदंडा जलयामलगंधिया सुरूवा पासाईया ४। तेसि णं तोरणाणं उप्पिं बहवे छत्ताइछत्ता पडागाइपडागा घंटाजुयला चामरजुयला उप्पलहत्थगा जाव सयसहस्सवत्तहत्थगा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। कठिन शब्दार्थ - किण्हचामरझया - काले वर्ण वाले चामरों से युक्त ध्वजाएं, उप्पलहत्थगा - उत्पल हस्तक-कमलों के समूह। भावार्थ - उन तोरणों के ऊपर बहुत से आठ आठ मंगल कहे गये हैं - १. स्वस्तिक २. श्रीवत्स ३. नंदिकावर्त ४. वर्द्धमान ५. भद्रासन ६. कलश ७. मत्स्य और ८. दर्पण। ये आठ मंगल सर्वरत्नमय, सूक्ष्म पुद्गलों के बने हुए प्रासादिक यावत् प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के ऊर्ध्वभाग में अनेकों कृष्ण वर्ण वाले चामरों से युक्त ध्वजाएं हैं, नीले वर्ण वाले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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