SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय प्रतिपत्ति - वनखण्ड का वर्णन ३९ भावार्थ - उस वनखण्ड के मध्य उस उस भाग में उस उस स्थान पर बहुत सी छोटी छोटी चौकोनी बावडियां हैं, गोल गोल अथवा कमल वाली पुष्करिणियां हैं, जगह जगह नहरों वाली दीर्घिकाएं हैं, टेढीमेढी गुंजालिकाएं हैं, जगह जगह सरोवर है, सरोवरों की पंक्तियां है, अनेक सरसर पंक्तियां हैं, बहुत से कुओं की पंक्तियां हैं। वे स्वच्छ और मृदुपुद्गलों से बनी हुई हैं। इनके तीर सम और चांदी के बने हैं, किनारे पर लगे पाषाण वज्रमय हैं, तलभाग तपनीय-स्वर्ण का बना हुआ है। इनके तटवर्ती अति उन्नत प्रदेश वैडूर्यमणि एवं स्फटिक के बने हैं। मक्खन के समान सुकोमल इनके तल हैं। स्वर्ण और शुद्ध चांदी (रजत विशेष) की रेत (बालु) है। ये सब जलाशय सुखपूर्वक प्रवेश और निष्क्रमण के योग्य है। इनके घाट नानाप्रकार की मणियों से मजबूत बने हुए हैं। कुएं और बावड़ियां चौकोन है। इनके जलस्थान क्रमश: नीचे नीचे गहरे हैं उनका जल अगाध और शीतल है। इनमें जल से ढंके हुए पद्मिनी के पत्र, कंद और पद्मनाल हैं। उनमें बहुत से उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र खिले रहते हैं, पराग से संपन्न हैं। जिनका भंवरे रसपान करते रहते हैं। ये सब जलाशय स्वच्छ और निर्मल जल से परिपूर्ण हैं जिनमें बहुत से मच्छ (मत्स्य), कच्छप और पक्षियों के जोड़े इधर उधर घूमते रहते हैं। प्रत्येक जलाशय वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है और प्रत्येक जलाशय पद्मवरवेदिका से युक्त है। इन जलाशयों में से कितनेक का पानी आसव जैसे स्वाद वाला, कितनेक का वारुण समुद्र के जल जैसा, किन्हीं का जल दूध जैसा, किन्हीं का घी जैसा, किन्हीं इक्षुरस जैसा, किन्हीं के जल का स्वाद अमृतरस जैसा और किन्हीं का जल स्वभाव से ही उदक रस जैसा है। ये सब जलाशय प्रसन्नता पैदा करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उन छोटी बावड़ियों यावत् कूपों में उस उस भाग उस उस स्थान में बहुत से विशिष्ट त्रिसोपान कहे गये हैं। . तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा - वइरामया णेमा रिट्ठामया पइट्ठाणा वेरुलियामया खंभा सुवण्णरुप्पामया फलगा वइरामया संधी लोहियक्खमईओ सूईओ णाणामणिमया अवलंबणा अवलंबणबाहाओ पासाइयाओ ४। तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं २ तोरणा प०॥ ____कठिन शब्दार्थ - लोहियक्खमईओ - लोहिताक्ष रत्नों की, अवलंबणा - अवलंबन-उतरने चढने के लिये आजू बाजू में लगे हुए दण्ड समान आधार, अवलंबणबाहाओ - अवलम्बन बाहा-जिनके सहारे अवलम्बन रहता है। भावार्थ - उन विशिष्ट त्रिसोपानों का वर्णन इस प्रकार है - वज्रमय उसकी नींव है, रिष्ट रत्नों के उसके पाये (प्रतिष्ठान) हैं, वैडूर्यरत्न के स्तंभ हैं, सोने और चांदी के पटिये (फलक) हैं, वज्रमय उनकी संधियां हैं, लोहिताक्ष रत्नों की सूइयां (कीलें) हैं, नाना मणियों के अवलम्बन हैं और नाना मणियों की बनी हई अवलम्बन बाहा हैं। उन विशिष्ट सोपानों के आगे प्रत्येक के तोरण कहे गये हैं। का इध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy