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________________ जीवाजीवाभिगम सूत्र वायु द्वारा मंद-मंद कम्पित होने से, विशेष रूप से कम्पित होने से, बार-बार कंपित होने से, क्षोभित होने से, चलित होने से, स्पंदित होने से, संघर्षित होने से तथा प्रेरित किये जाने पर कैसा शब्द होता है ? ३६ जैसे शिविका ( पालखी विशेष), स्यंदमानिका ( बड़ी पालखी) और संग्राम रथ जो छत्र सहित है, ध्वजा सहित है, दोनों तरफ लटकते हुए बड़े बड़े घंटों से युक्त है, श्रेष्ठ तोरण से युक्त हैं, नंदि घोष से युक्त है, छोटी-छोटी घंटियों-घुंघुरुओं से युक्त स्वर्ण की माला समूहों से जो सब ओर से व्याप्त है, जो हिमवान् पर्वत के चित्र विचित्र मनोहर चित्रों से युक्त, तिनिश की लकड़ी (यह 'हमवंत पर्वत की सबसे ऊंची जाति की व अत्यन्त कठोर लकड़ी होती है। रथ में तो लकड़ी का ही प्रयोग होता है जैसे चक्रवर्ती का असि रत्न लोहे का होता है सोने का नहीं । किन्तु वह मूल्य में हीरों से भी ज्यादा कीमती हो जाता है। इसी प्रकार लोहे में कठोरता होती है सोने में नहीं) से बना हुआ, सोने से खचित- मढा हुआ है, जिसके आरे बहुत ही अच्छी तरह लगे हुए हों, जिसकी धुरा मजबूत हो, जिसके पहियों पर लोह की पट्टी चढाई गई हो, आकीर्ण-गुणों से युक्त श्रेष्ठ घोड़े जिसमें जुते हुए हों, जो कुशल एवं दक्ष सारथी से युक्त हो, प्रत्येक में सौ-सौ बाण वाले बत्तीस तूणीर जिसमें चारों ओर लगे हुए हों, कवच जिसका मुकुट हो, धनुष सहित बाण और भाले आदि विविध शस्त्रों तथा उनके आवरणों से जो परिपूर्ण हो तथा जो योद्धाओं के युद्ध निमित्त से सजाया गया हो, ऐसा संग्राम रथ जब राजांगण में या अन्त: पुर में या मणियों से जड़े हुए भूमितल में बार बार वेग पूर्वक चलता हो, आता जाता हो तब जो उदार, मनोज्ञ तथा कान एवं मन को तृप्त करने वाले चौतरफा शब्द निकलते हैं, क्या उन तृणों और मणियों का ऐसा शब्द होता है ? हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। हे भगवन् ! जैसे ताल के अभाव में भी बजायी जाने वाली वैतालिका मंगलपाठिका वीणा जब गांधार स्वर के अंतर्गत उत्तरामंदा नामक मूर्छना से युक्त होती है, बजाने वाले व्यक्ति की गोद में भली भांति विधिपूर्वक रखी हुई होती है, चन्दन के सार से निर्मित कोण (वादन दण्ड) से घर्षित की जाती है, बजाने में कुशल नरनारी द्वारा ग्रहण की गई हो ऐसी वीणा को प्रातः काल और संध्याकाल के समय मंद-मंद और विशेष रूप से कम्पित करने पर, बजाने पर क्षोभित, चलित, स्पंदित, घर्षित और प्रेरित किये जाने पर जैसा उदार मनोज्ञ कान और मन को तृप्ति करने वाला शब्द चौतरफा निकलता है, क्या उन तृणों और मणियों का ऐसा शब्द है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। हे भगवन्! जैसे किंनर, किंपुरुष, महोरग और गंधर्व जो भद्रशाल वन, नन्दन वन, सोमनस वन और पंडक वन में स्थित हों, जो हिमवान पर्वत, मलय पर्वत या मेरु पर्वत की गुफा में बैठे हों, एक स्थान पर एकत्रित हुए हों, एक दूसरे के सन्मुख बैठे हों, परस्पर रगड़ से रहित सुखपूर्वक आसीन हों, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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