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तृतीय प्रतिपत्ति - वनखण्ड का वर्णन
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समस्थान पर स्थित हों, जो प्रमुदित और क्रीड़ा में मग्न हों, गीत में जिनकी रति हो और गंधर्व नाट्य आदि करने से जिनका मन हर्षित हो रहा हो, उन गंधर्वादि के गद्य, पद्य, कथ्य, पदबद्ध, पादबद्ध, उत्क्षिप्त-प्रथम आरंभ किया हुआ, प्रवर्तक-प्रथम आरंभ से ऊपर आक्षेप पूर्वक होने वाला, मंदाक (मध्य भाग में मंद मंद रूप से स्वरित) इन आठ प्रकार के गेय को, रुचि कर अंत वाले गेय को, सात स्वरों से युक्त गेय को, आठ रसों से युक्त गेय को, छह दोषों से रहित, ग्यारह अलंकारों से युक्त, आठ गुणों से युक्त बांसुरी की सुरीली आवाज से गाये गये गेय को, राग से अनुरक्त, उर-कंठ-शिर ऐसे त्रिस्थान शुद्ध गेय को, मधुर, सम, सुललित, एक तरफ बांसुरी और दूसरी तरफ वीणा बजाने पर दोनों में मेल के साथ गाया गया गेय, ताल संप्रयुक्त, लयसंप्रयुक्त, ग्रहसंप्रयुक्त-बांसुरी तंत्री आदि के पूर्व गहीत स्वर के के अनसार गाया जाने वाला मनोहर मद और रिभित-तंत्री आदि के स्वर से मेल खाते हए पद संचार वाले, श्रोताओं को आनंद देने वाले, अंगों के सुंदर झुकाव वाले, श्रेष्ठ सुंदर ऐसे दिव्य गीतों के गाने वाले उन किन्नर आदि के मुख से जो शब्द निकलते हैं, क्या वैसे उन तृणों और मणियों के शब्द होते हैं?
हाँ, गौतम! उन तृणों और मणियों के कम्पन से होने वाला शब्द इस प्रकार का होता है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वनखण्ड के भूमिभाग में जो तृण और मणियाँ हैं उन का स्वर कैसा होता है इसके लिये सूत्रकार ने तीन उपमाओं का उल्लेख किया है।
प्रस्तुत सूत्र में गेय आठ प्रकार का कहा है, वह इस प्रकार है - १. गद्य - जो स्वर संचार से गाया जाता है। २. पद्य - जो छन्द आदि रूप हो। ३. कथ्य - कथात्मक गीत। ४. पदबद्ध - जो एकाक्षर आदि रूप हो। ५. पाद बद्ध - श्लोक का चतुर्थ भाग रूप हो। ६. उत्क्षिप्त - जो पहले आरंभ किया हुआ हो।
७. प्रवर्तक - प्रथम आरंभ से ऊपर आक्षेपपूर्वक होने वाला। - ८. मंदाक - मध्य भाग में सकल मूर्च्छनादि गुणोपेत तथा मंद मंद स्वर से संचरित हो।
गेय सात स्वरों, आठ रसों और छह दोषों से रहित तथा आठ गुणों से युक्त होना चाहिये। उनमें सात स्वर ये हैं - षड्ज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत और नैषाद। ये सात स्वर पुरुष के या स्त्री के नाभि देश से निकलते हैं। श्रृंगार आदि आठ रस होते हैं। छह दोष इस प्रकार हैं - भीत, द्रुत, उप्पिच्छ (आकुलता युक्त), उत्ताल, काकस्वर और अनुनास-नाक से गाना, ये गेय के छह दोष हैं। गेय के आठ गुण इस प्रकार हैं - १. पूर्ण - जो स्वर कलाओं से परिपूर्ण हो २. रक्त - राग से अनुरक्त
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