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तृतीय प्रतिपत्ति - वनखण्ड का वर्णन
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तलताललयग्गहसुसंपउत्तं मणोहरं मउयरिभियपयसंचारं सुरई सुणइं वरचारुरुवं दिव्वं णटुं सज्जं गेयं पगीयाणं, भवे एयारूवे सिया? .. हंता गोयमा! एवंभूए सिया॥१२६॥
कठिन शब्दार्थ - एइयाणं - कंपित होने से, वेइयाणं - विशेष कंपित होने से, कंपियाणं - बार बार कंपित होने से, खोभियाणं - क्षोभित होने से, चालियाणं - चलित होने से, फंदियाणं - स्पंदित होने से, घट्टियाणं - संघर्षित होने से, उदीरियाणं - प्रेरित किये जाने से, संखिंखिणिहेमजालपेरंतपरिखित्तस्स - छोटी छोटी घंटियों (घुघुरुओं) से युक्त, स्वर्ण की माला समूहों से सब ओर से व्याप्त, आइण्णवरतुरगसुसंपउत्तस्स - आकीर्ण-गुणों से युक्त श्रेष्ठ घोड़े, जिसमें जुते हुए हों, कुसलणरछेयसारहि सुसंपरिगहियस्स - अश्व संचालन रूप कार्य में कुशल एवं दक्ष सारथी से युक्त, सकंकडवडिंसगस्स - बकतर सहित मुकुट जिसका हो, जोहजुद्धसज्जस्स - योद्धाओं के युद्ध के निमित्त जो सजाया गया हो, अभिघट्टिज्जमाणस्स - वेग से चलता हो, णियट्टिज्जमाणस्स - आता जाता हो, वेयालियाए वीणाए - वैतालिका वीणा-विताल में बजाई जाने वाली वीणा, पओसपच्चूसकालसमयंसि - प्रात:काल और संध्याकाल के समय में, सहियाणं - एक स्थान पर एकत्रित, संमुहागयाणं - एक दूसरे के सन्मुख, पमुइयपक्कीलियाणं - प्रमुदित और क्रीड़ा में मग्न, गीयरइगंधव्वहरिसियमणाणं - गीत में जिनकी रति हो और गंधर्व नाट्य आदि से जिनका मन हर्षित हो रहा हो, गेग्जं - गद्य, पज्जं - पद्य, कत्थं - कथ्य, गेयं - गेय, पयविद्धं - पदबद्धएकाक्षरादि रूप, पायविद्धं - पादबद्ध-श्लोक का चौथा भाग, उक्खित्तयं - उत्क्षिप्त-प्रथम आरंभ किया हुआ, पवत्तयं - प्रवर्तक, मंदायं - मंदाक, रोइयावसाणं - रोचितावसान-जिस गीत का अंत रुचिकर ढंग से शनैः शनैः होता हो, अट्ठरससुसंपउत्तं - अष्टरस-संप्रयुक्त-आठ रसों से युक्त, छद्दोसविप्पमुक्कंषड्दोष-विप्रमुक्त-छह दोषों से रहित, एकारसगुणालंकारं - एकादशगुणालंकार-ग्यारह गुणों से युक्त, अवगुणोववेयं - अष्टगुणोपेत-आठ गुणों वाला, गुंजंतवंसकुहरोवगूढं - जो बांसुरी में तीन सुरीली आवाज से गाया गया हो, रत्तं - राग से अनुरक्त, तिट्ठाणकरणसुद्धं - त्रिस्थानकरणशुद्ध-जो उर, कंठ और सिर इन तीन स्थानों से शुद्ध हो, सकुहरगुंजंतवंसतंतीतलताललयग्गहसुसंपउत्तं - बांसुरी, वीणा, ताल, लय के स्वर से मेल खाता हुआ, गाया जाने वाला गेय, मणोहरं - मन को हरने वाला, मठयरिभियपयसंचार - मृदुरिभितपदसंचार-मृदु स्वर से युक्त, तंत्री (वीणा) आदि से ग्रहण किये गये स्वर से युक्त पद संचार वाला, सुरई - श्रोताओं को आनंद देने वाला, सुणई - अंगों के सुंदर हावभाव से युक्त, वरचारुरुवं - विशिष्ट सुंदर रूप वाला।
भावार्थ - हे भगवन् ! उन तृणों और मणियों के पूर्व-पश्चिम-दक्षिण-उत्तर दिशा से आने वाली
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