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________________ २८ जीवाजीवाभिगम सूत्र .00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 दिखाई देता, इनके पत्ते वायु से नीचे नहीं गिरते हैं, इनके पत्तों में ईति-रोग नहीं होता। इन वृक्षों के जो पत्ते पुराने पड़ जाते हैं या सफेद हो जाते हैं वे हवा से गिरा दिये जाते हैं और अन्यत्र डाल दिये जाते हैं। नये और हरे दीप्तिमान पत्तों के झुरमुट से होने वाले अंधकार के कारण इनका मध्यभाग दिखाई न पड़ने से ये दर्शनीय-रमणीय लगते हैं। इनके अग्रशिखर निरन्तर निकलने वाले पल्लवों और कोमल उज्ज्वल तथा कम्पित किशलयों से सुशोभित हैं। ये वृक्ष सदा कुसुमित रहते हैं, नित्य मुकुलित रहते हैं, नित्य पल्लवित रहते हैं, नित्य स्तबकित रहते हैं, नित्य गुल्मित रहते हैं, नित्य गुच्छित रहते हैं, नित्य यमलित रहते हैं, नित्य युगलित रहते हैं, नित्य विनमित रहते हैं एवं नित्य प्रणमित रहते हैं। इस प्रकार नित्य कुसुमित यावत् नित्य प्रणमित बने हुए ये वृक्ष सुविभक्त प्रतिमंजरी रूप अवतंसक को धारण किये रहते हैं। इन वृक्षों के ऊपर शुक्र के जोड़े, मयूरों के जोड़े, मैना के जोड़े, कोकिल के जोड़े, चक्रवाक के जोड़े, कलहंस के जोड़े, सारस के जोड़े इत्यादि अनेक पक्षियों के जोड़े बैठे बैठे बहुत दूर तक सुने जाने वाले उन्नत शब्दों को करते रहते हैं-चहचहाते रहते हैं, इससे इन वृक्षों की सुंदरता में विशेषता आ जाती है। मधु का संचय करने वाले उन्मत्त भ्रमरों और भमरियों का समुदाय उन पर मंडराता रहता है। अन्य स्थानों से आ आकर मधुपान से उन्मत्त भंवरे पुष्पपराग के पान में मस्त बन कर मधुर मधुर गुंजारव से इन वृक्षों को गुंजाते रहते हैं। इन वृक्षों के पुष्प और फल इन्हीं के भीतर छिपे रहते हैं। ये वृक्ष बाहर से पत्रों और पुष्पों से आच्छादित रहते हैं। ये वृक्ष सब प्रकार के रोगों से रहित हैं, कांटों से रहित हैं। इनके फल स्वादिष्ट होते हैं और स्निग्ध स्पर्श वाले होते हैं। ये वृक्ष प्रत्यासन्न नाना प्रकार के गुच्छों से, गुल्मों से, लता मण्डपों से सुशोभित हैं। इन पर अनेक प्रकार की ध्वजाएं फहराती रहती हैं। इन वृक्षों को सींचने के लिये चौकोर बावड़ियों में गोल पुष्करिणियों में लम्बी दीर्घिकाओं में सुंदर जालगृह बने हुए हैं। ये वृक्ष ऐसी विशिष्ट मनोहर सुगंध को छोड़ते रहते हैं कि उससे तृप्ति ही नहीं होती। इन वृक्षों की क्यारियां शुभ है और उन पर जो ध्वजाएं हैं, वे भी अनेक रूप वाली हैं। ___तस्स णं वणसंडस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते से जहाणामएआलिंगपुक्खरेइ वा मुइंगपुक्खरेइ वा सरतलेइ वा करयलेइ वा आयंसमंडलेइ वा चंदमंडलेइ वा सूरमंडलेइ वा उरब्भचम्मेइ वा उसभचम्मेइ वा वराहचम्मेइ वा सीहचम्मेइ वा वग्घचम्मेइ वा विगचम्मेइ वा दीवियचम्मेइ वा अणेगसंकुकीलगसहस्सवियए आवडपच्चावडसेढीपसेढीसोत्थिय-सोवत्थियपूसमाणवद्धमाणमच्छंडग-मगरंडगजारमार-फुल्लावलि-पउमपत्तसागरतरंग-वासंतिलय-पउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं समिरीएहिं सउज्जोएहिं णाणाविहपंचवण्णेहिं तणेहि य मणीहि य उवसोहिए तंजहाकिण्हेहिं जाव सुक्किल्लेहिं॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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