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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - वनखण्ड का वर्णन २७ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वनखण्ड का वर्णन किया गया है। जहां अनेक जाति के उत्तम वृक्ष होते हैं, वह वनखण्ड कहलाता है। कहा भी है - "एग जाइएहिं रुक्खेहिं वणं अणेगजाइएहिं उत्तमेहिं रुक्खेहिं वणसंडे"। अर्थात् जहां एक सरीखे वृक्ष हों वह वन और अनेक जाति के उत्तम वृक्ष जहां हो वह वनखण्ड कहलाता है। जंबूद्वीप की जगती के ऊपर पद्मवरवेदिका है और उसके बाहर कुछ कम दो योजन का जगती के चक्रवाल विष्कंभ के समान एक विशाल वनखण्ड है जहां अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम वृक्षों का समुदाय है। वह वनखण्ड अत्यंत हराभरा तथा छाया प्रधान होने से काला है और काला दिखाई देता है। इसके आगे 'जाव' (यावत्) शब्द दिया है जिससे निम्न पाठ का ग्रहण समझना चाहिये - "ते णं पायवा मूलवंता कंदवंता खंधवंता तयावंता सालवंता पवालवंता पत्तपुप्फफल बीयवंता अणुपुव्वसुजाय रुइलवट्टभावपरिणया एगखंधी अणेगसाहप्पसाहविडिमा, अणेगणरव्वामसुपसारिय-गेज्झ-घणविउलवट्टखंधा अच्छिद्दपत्ता अविरलपत्ता अवाईणपत्ता अणईइपत्ता णिभूयजरढपंडुरपत्ता णवहरियभिसंतपत्तंधयार गंभीरदरिसणिज्जा उवविणिग्गयणवतरुणपत्तपल्लवकोमलुज्जल चलंतकिसलयसुकुमाल सोहियवरंकुरग्गसिहरा, णिच्चं कुसुमिया णिच्चं मउलिया णिच्चं लवइया णिच्चं थवइया णिच्चं गोच्छिया णिच्चं जमलिया णिच्चं जुयलिया णिच्चं विणमिया णिच्चं पणमिया णिच्चं कुसुमिय-मउलिय-लवइय-थवइय-गुलइय-गोच्छिय-जमलियजुगलिय विणमिय पणमिय सुविभत्त पडिमंजरिवडंसगधरा सुयबरहिण-मयणसलागा-कोइलकोरग-भिंगारंग-कोंडलग जीवंजीवग णंदिमुह-कविल-पिंगलक्ख-कारंडव-चक्कवाग-कलहंससारसाणेग सउणगणमिहुण विचारिय सढुण्णइय महुरसणाइयसुरम्मा संपिंडियदप्पिय-भमरमहुयरीपहकरा परिलीयमाणमत्तछप्पय कुसुमासवलोल महुरगुमगुमायंत-गुंजंतदेसभागा अभिंतरपुप्फफला बाहिरपत्तछण्णा णीरोगा अकं टगा साउफला णिद्धफला णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवग सोहिया विचित्तसुहकेउबहुला वावी-पुक्खरिणी-दीहियासुणिवेसिय रम्मजालघरगा पिंडिमं सुहसुरहिमणोहरं महया गंधद्धणिं णिच्चं मुंचमाणा सुहसेउकेउ बहुला......" ___ अर्थ - उस वनखण्ड के वृक्षों के मूल बहुत दूर तक जमीन के भीतर गहरे गये हुए हैं, वे प्रशस्त कंद वाले, प्रशस्त स्कंध वाले, प्रशस्त छाल वाले, प्रशस्त शाखा वाले, प्रशस्त किशलय वाले, प्रशस्त पत्र वाले और प्रशस्त फूल, फल और बीज वाले हैं। वे सब पादप समस्त दिशाओं में और विदिशाओं में अपनी-अपनी शाखा प्रशाखाओं द्वारा इस ढंग से फैले हुए हैं कि वे गोल-गोल प्रतीत होते हैं। वे मूलादि क्रम से सुंदर, सुजात और रुचिर (सुहावने) प्रतीत होते हैं। ये वृक्ष एक एक स्कंध वाले हैं। इनका गोल स्कंध इतना विशाल है कि अनेक पुरुष भी अपनी फैलाई हुई बाहुओं में उसे ग्रहण नहीं कर सकते। इन वृक्षों के पत्ते छिद्र रहित हैं, अविरल हैं-इस तरह सटे हुए हैं कि अन्तराल में छेद नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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