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________________ २६ जीवाजीवाभिगम सूत्र पउमवरवेडया णं भंते! कालओ केवच्चिरं होड? गोयमा! ण कयावि णासि ण कयावि णत्थि ण कयावि ण भविस्सइ भुविं च भवइ य भविस्सइ य धुवा णियया सासया अक्खया अव्वया अवट्ठिया णिच्चा पउमवरवेइया॥१२५॥ भावार्थ - हे भगवन् ! पद्मवरवेदिका काल की अपेक्षा कब तक रहने वाली है? हे गौतम! पद्मवरवेदिका कभी नहीं थी' ऐसा नहीं है 'कभी नहीं है' ऐसा नहीं है, 'कभी नहीं रहेगी' ऐसा भी नहीं है। वह थी, है और रहेगी। वह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, . अवस्थित है और नित्य है। यह पद्मवरवेदिका का वर्णन हुआ। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में जंबूद्वीप की जगती पर स्थित पद्मवरवेदिका का विस्तृत वर्णन किया गया है। जीवाभिगम टीका के वर्णन से तो पद्मवरवेदिका ठोस जैसी लगती है। किन्तु प्राचीन परम्परा से इसे अन्दर से पोलार जैसी समझी गई है। कहीं कहीं पर टीका में वेदिका का 'पाली' (तालाब की पाल) जैसा अर्थ भी किया गया है। वास्तविकता तो ज्ञानीगम्य है। वनखण्ड का वर्णन तीसे णं जगईए उप्पिं बाहिं पउमवरवेइयाए एत्थ णं एगे महं वणसंडे पण्णत्ते देसूणाइंदो जायणाइं चक्कवालविक्खंभेणं जगईसमए परिक्खेवेणं, किण्हे किण्होभासे जाव अणेगसगडरहजाणजुग्गपरिमोयणे सुरम्मे पासाईए सण्हे लण्हे घटे मटे णीरए णिप्पंके णिम्मले णिक्कंकडच्छाए सप्पभे समिरीए सउज्जोए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे॥ कठिन शब्दार्थ - वणसंडे - वनखण्ड, अणेगसगडरहजाणजुग्गपरिमोयणे - अनेक गाडियां, रथ, यान, युग्य उनके नीचे छोड़ी जाती है भावार्थ- उस जगती के ऊपर और पद्मवरवेदिका के बाहर एक बडा विशाल वनखण्ड कहा गया है। वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन गोल विस्तार वाला है और उसकी परिधि जगती की परिधि के समान है। वह वनखण्ड अत्यंत हराभरा होने से तथा छाया प्रधान होने से काला है और काला दिखाई देता है यावत् अनेक गाड़ियां, रथ, यान, युग्य छाया अधिक होने से उसके नीचे छोड़ी जाती हैं। वह वनखण्ड सुरम्य है, प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला है, स्वच्छ है, मृदु है, चिकना है, घिसा हुआ है, मंजा हुआ है, नीरज है, निष्पंक है, निर्मल है, निरुपहत कांति वाला है, प्रभावाला है, किरणों वाला है और उद्योत करने वाला है, वह प्रसन्नता पैदा करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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