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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - पद्मवरवेदिका का वर्णन णीयाइं णिम्मलाई णिप्पंकाई णिक्कंकडच्छायाई सप्पभाई समरीयाइं सउज्जोयाइं पासाइयाइं दरिसणिज्जाइं अभिरूवाइं पड़िरूवाइं महया महया वासिक्कच्छत्तसमयाई पण्णत्ताइं समणाउसो ! से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-पउमवरवेइया पउमवरवेइया ॥ भावार्थ - हे भगवन् ! पद्मवरवेदिका को पद्मवरवेदिका क्यों कहा जाता है ? हे गौतम! पद्मवरवेदिका में स्थान स्थान पर वेदिकाओं में, वेदिकाओं के आसपास में, वेदिकाओं शीर्ष भाग में, दो वेदिकाओं के बीच के स्थानों में, स्तंभों में, स्तंभों के आसपास, स्तंभों के ऊपरी भाग पर, दो स्तंभों के बीच के अन्तरों में, सूचियों में, सूचियों के मुखों में, सूचियों के फलकों में, दो सूचियों के अंतरों में, पक्षों में, पक्ष एक देश में, दो पक्षों के अंतराल में बहुत से उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि विविधकमल हैं। वे कमल सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् अभिरूप हैं प्रतिरूप हैं । ये सब कमल वर्षाकाल के समय लगाये गये छत्रों के आकार के हैं। (जैसे खाली कागज पर हाथी आदि के चिन्ह होते हैं। वैसे आये हुए बड़े बड़े आकार के वर्षा ऋतु के समय के छाते के समान चित्र । छोटे स्थानों में छोटे छाते होते हुए भी बड़े जैसे दिखते हैं। जैसे चित्र में बड़े व्यक्ति का फोटू छोटे आकार में होते हुए भी बड़ा जैसा तथा छोटे बच्चे का बड़ा चित्र भी छोटे जैसा प्रतीत होता है ।) हे आयुष्मन् श्रमण ! इस कारण से पद्मवरवेदिका को पद्मवरवेदिका कहा जाता है । पउमवरवेइया णं भंते! किं सासया असासया ? गोयमा ! सिय सासया सिय असासया ॥ सेकेणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ - सिय सासया सिय असासया ? गोयमा! दव्वट्टयाए सासया वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासया, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - सिय सासया सिय असासया ॥ भावार्थ - हे भगवन् ! पद्मवरवेदिका शाश्वत है या अशाश्वत ? हे गौतम! पद्मवरवेदिका कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् अशाश्वत है। हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि पद्मवरवेदिका कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् अशाश्वत है ? २५ हे गौतम! पद्मवरवेदिका द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत है और वर्ण, गंध, रस और स्पर्श पर्यायों से अशाश्वत है इसलिये हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि पद्मवरवेदिका कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् अशाश्वत है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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