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________________ २४ जीवाजीवाभिगम सूत्र .............0000000000000000000000000000000000000000000000.. तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे २ तहिं तहिं बहवे हयपंतीओ तहेव जाव पडिरूवाओ। एवं हयवीहीओ जाव पडिरूवाओ। एवं हयमिहुणाइं जाव पडिरूवाइं॥ भावार्थ - उस पद्मवरवेदिका के अलग अलग स्थानों पर कहीं घोड़ों की पंक्तियां-एक दिशावर्ती श्रेणियां यावत् कहीं बैलों की पंक्तियां आदि उत्कीर्ण हैं जो सर्वरत्नमय हैं स्वच्छ हैं यावत् अभिरूप प्रतिरूप हैं। उस पद्मवरवेदिका के अलग अलग स्थानों पर कहीं घोड़ों की वीथियां (दो श्रेणी रूप) यावत् कहीं बैलों की वीथियां उत्कीर्ण हैं जो सर्वरत्नमय हैं स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे २ तहिं तर्हि. बहवे पउमलयाओ णागलयाओ, एवं असोग० चंपग० चूयवण० वासंति० अइमुत्तग० कुंद० सामलयाओ णिच्चं कुसुमियाओ जाव सुविहत्तपिंडमंजरिवडिंसगधरीओ सव्वरयणामईओ अच्छाओ सण्हाओ लण्हाओ घट्ठाओ मट्ठाओ णीरयाओ णिम्मलाओ णिप्पंकाओ णिक्कंकडच्छायाओ सप्पभाओ समरीयाओ सउज्जोयाओ पासाईयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ। भावार्थ - उस पद्मवरवेदिका में स्थान-स्थान पर बहुत सी पद्मलता, नागलता, अशोकलता, चम्पकलता, चूतवनलता (आम्रवन लता), वासंतीलता, अतिमुक्तकलता, कुंदलता, श्यालता नित्य कुसुमित रहती है यावत् सुविभक्त एवं विशिष्ट मंजरी रूप मुकुट को धारण करने वाली हैं। ये लताएं सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, मृदु हैं, चिकनी हैं, घिसी हुई हैं, मंजी हुई हैं, रज रहित है, निर्मल है, पंक रहित है निष्कलंक छवि वाली है, प्रभामय है, किरणमय है, उद्योतमय है। प्रसन्नता पैदा करने वाली, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। . (तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे २ तहिं तहिं बहवे अक्खयसोत्थिया पण्णत्ता सव्वरयणामया अच्छा)॥ भावार्थ - उस पद्मवरवेदिका में स्थान स्थान पर बहुत से अक्षय स्वस्तिक कहे गये हैं जो सर्वरत्नमय और स्वच्छ हैं। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-पउमवरवेइया पउमवरवेइया? गोयमा! पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे २ तहिं तहिं वेइयासु वेइयाबाहासु वेइयासीसफलएसु वेड्यापुडंतरेसु खंभेसु खंभबाहासु खंभसीसेसु खंभपुडंतरेसु सूईसु सूईमुहेसु सूईफलएसु सूईपुडंतरेसु पक्खेसु पक्खबाहासु पक्खपेरंतेसु बहूइं उप्पलाइं पउमाइं जाव सयसहस्सपत्ताइं सव्वरयणामयाइं अच्छाई सण्हाइं लण्हाइं घट्ठाई मट्ठाइं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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