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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - पद्मवरवेदिका का वर्णन २३ आच्छादन हेतु बड़ी किमडियां जो हैं वे सोने की हैं और पुंछनियां वज्ररत्ल की हैं पुञ्छनी के ऊपर और कवेलू के नीचे का आच्छादन श्वेत चांदी का बना हुआ है। सा णं पउमवरवेइया एगमेगेणं हेमजालेणं एगमेगेणं गवक्खजालेणं एगमेगेणं खिंखिणिजालेणं जाव मणिजालेणं (कणयजालेणं रयणजालेणं) एगमेगेणं पउमवरजालेणं सव्वरयणामएणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता॥ भावार्थ - वह पद्मवरवेदिका कहीं सोने से लटकते हुए मालासमूह से, कहीं गवाक्ष की आकृति के रत्नों के लटकते मालासमूह से, कहीं किंकणी-छोटी घंटियां और कहीं बड़ी घंटियों के आकार की मालाओं से, कहीं मोतियों की लटकती मालाओं से, कहीं मणियों की मालाओं से, कहीं सोने की मालाओं से कहीं रत्नमय पद्म की आकृति वाली मालाओं से चारों ओर सब दिशा विदिशाओं में व्याप्त है। ते णं जाला तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया णाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोभियसमुदया ईसिं अण्णमण्णमसंपत्ता पुव्वावरदाहिणउत्तरागएहिं वाएहिं मंदागं २ एज्जमाणा २ कंपिज्जमाणा २ लंबमाणा २ पंझझमाणा २ सद्दायमाणा २ तेणं ओरालेणं मणुण्णेणं कण्णमणणिव्वुइकरेणं सद्देणं सव्वओ समंता आपूरेमाणा सिरीए अईव २ उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिटुंति॥ भावार्थ - वे मालाएं तपे हुए स्वर्ण के लम्बूसग-पैंडल वाली हैं, सोने के पतरे से मंडित हैं, नाना प्रकार के मणिरत्नों के, विविधहारों-अद्धहारों से सुशोभित हैं, ये एक दूसरे से पास पास हैं, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा से आई वायु से मंद मंद हिल रही है, कंपित हो रही है, लम्बी लम्बी फैल रही है. परस्पर टकराने से शब्दायमान हो रही है। उन मालाओं से निकला हुआ शब्द मनोज्ञ, मनोहर, श्रोताओं के कान एवं मन को सुख देने वाला होता है। वे मालाएं मनोज्ञ शब्दों से सब दिशाओं और विदिशाओं को आपूरित करती हुई शोभायमान हो रही है। 'तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे २ तहिं तहिं बहवे हयसंघाडा गयसंघाडा णरसंघाडा किण्णरसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा गंधव्वसंघाडा वसहसंघाडा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पंका णिक्कंकडच्छाया सप्पभा समरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। - भावार्थ - उस पद्मवरवेदिका के अलग अलग स्थानों पर कहीं कहीं पर अनेक घोड़ों की जोड़ (युग्म), हाथी की जोड़, नर की जोड़, किन्नर की जोड़, किम्पुरुष की जोड़, महोरग, गंधर्व और बैलों की जोड़ उत्कीर्ण है जो सर्व रत्नमय है स्वच्छ है यावत् अभिरूप प्रतिरूप है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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