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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - जम्बूद्वीप का वर्णन गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पंकाणिक्कंकडच्छाया सप्पभा समिरीया ( सस्सिरीया) सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा । सा णं जगई एक्केणं जालकडएणं सव्वओ समंता परिक्खित्ता । सेणं जालकडए अद्धजोयणं उड्डुं उच्चत्तेणं पंच धणुसयाइं विक्खंभेणं सव्वरयणामए अच्छे सण्हे लहे घट्टे मट्ठे णीरए णिम्मले णिप्पंके णिक्कंकडच्छाए सप्प (सस्सिरीए) समरीए सउज्जोए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे ॥ १२४॥ कठिन शब्दार्थ - गोपुच्छसंठाणसंठिया - गोपुच्छ संस्थान संस्थितः - गाय की पूंछ के आकार की, सव्ववइरामई - सर्व वज्रमयी सर्वात्मना वज्ररत्नमय, अच्छा स्वच्छ, पुण्हा - श्लक्ष्णा - कोमल, लहा - मसृणा - स्निग्ध, घट्ठा - घृष्टा - घिसी हुई, मट्ठा - मृष्टा- साफ की हुई, णीरया - नीरजा - रज रहित णिम्मला - निर्मल, णिप्पंका - निष्पंक, णिक्कंकडच्छाया - निष्कंकटच्छाया-बिना आवरण की दीप्ति वाली, सप्पभा प्रभा सहित, समिरीया - शोभा सहित, सउज्जोया - उद्योत सहित, पासाईया प्रसन्नता देने वाली, दरिसणिज्जा - दर्शनीय, अभिरूवा - अभिरूप, पडिरूवा - प्रतिरूप, जालकडएणंजाल कटक-जालियों का समूह । भावार्थ - यह जंबूद्वीप एक जगती से चारों ओर से घिरा हुआ है । वह जगती आठ योजन से ऊंची है। उसका विस्तार मूल में बारह योजन, मध्य में आठ योजन और ऊपर चार योजन है। मूल में विस्तीर्ण मध्य में संक्षिप्त और ऊपर से पतली है । वह गाय पूंछ के आकार की है । वह पूरी तरह वज्ररत्न की बनी हुई है । वह स्फटिक की तरह स्वच्छ है, मृदु है, चिकनी है, घिसी हुई, रज रहित, निर्मल, निष्पंक-पंक रहित, निरुपघात दीप्ति वाली, प्रभावाली, किरणों वाली, उद्योत वाली, प्रसन्नता पैदा करने वाली, दर्शनीय, सुंदर और प्रतिरूप - अतिसुंदर है । वह जगती एक जालियों के समूह से सब दिशाओं से घिरी हुई है। वह जाल समूह आधा योजन ऊंचा पांच सौ धनुष विस्तार वाला है, सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, मृदु है, चिकना है यावत् अभिरूप और प्रतिरूप है। - Jain Education International - विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में जम्बूद्वीप के चारों ओर नगर के प्राकार- परकोटे की तरह स्थित जगती IT वर्णन किया गया है। वह जगती ऊंचाई में आठ योजन, मूल में बारह योजन, मध्य में आठ योजन, ऊपर चार योजन गोपुच्छ के आकर की है। वह जगती शाश्वत होने से अच्छा सण्हा.... पडिरूवा आदि सोलह विशेषणों वाली है । यह जगती एक जाल कटक से घिरी हुई है । जैसे भवन की दिवारों में झरोखे और रोशनदान होते हैं वैसी जालियां जगह जगह सब ओर बनी हुई है। यह जाल समूह दो कोस ऊंचा, ५०० धनुष का विस्तार वाला है। यह जाल समूह सर्वात्मना रत्नमय और स्वच्छ यावत् प्रतिरूप है। For Personal & Private Use Only २१ www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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