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________________ ३५४ जीवाजीवाभिगम सूत्र भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! अनाहारक यावत् काल से कितने समय तक रहता है? . उत्तर - हे मौतम! अनाहारक दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा :- छद्मस्थ-अनाहारक और केवलि - अनाहारक। प्रश्न- हे भगवन! छद्मस्थ-अनाहारक उसी रूप में कितने काल तक रहता है? उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक समय उत्कृष्ट दो समय तक। केवलि-अनाहारक दो प्रकार के हैं - सिद्धकेवलि-अनाहारक और भवस्थकेवलि-अनाहारक। . प्रश्न - हे भगवन्! सिद्ध केवलि-अनाहारक उसी रूप में कितने काल तक रहता है ? उत्तर - हे गौतम! वह सादि अपर्यवसित है। प्रश्न- हे भगवन! भवस्थ केवलि-अनाहारक कितने प्रकार के हैं? ... उत्तर - हे गौतम! दो प्रकार के हैं - १. सयोगि भवस्थ केवलि अनाहारक और २. अयोगी भवस्थ केवलि अनाहारक। प्रश्न - हे भगवन् ! सयोगि भवस्थ केवलि अनाहारक उसी रूप में कितने काल तक रहता है ? . उत्तर - हे गौतम! जघन्य उत्कृष्ट रहित तीन समय तक। अयोगि भवस्थ केवलि अनाहारक जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अंतर्मुहूर्त तक रहता है। विवेचन - अनाहारक के दो भेद हैं - १. छद्मस्थ-अनाहारक और २. केवली-अनाहारक। छद्मस्थ अनाहारक जघन्य एक समय तक अनाहारक रह सकता है, यह दो समय की विग्रहगति की अपेक्षा से है और उत्कृष्ट दो समय तक अनाहारक रह सकता है यह तीन समय की विग्रहगति की अपेक्षा से है। केवली अनाहारक के दो भेद हैं - १. भवस्थ केवली अनाहारक और २. सिद्ध केवली अनाहारक। सिद्धकेवली अनाहारक सादि अपर्यवसित हैं। भवस्थ केवली अनाहारक दो प्रकार के कहे गये हैं - १. सयोगि भवस्थ केवली अनाहारक और २. अयोगी भवस्थ केवली अनाहारक। सयोगी भवस्थ केवली अनाहारक अजघन्य अनुत्कृष्ट तीन समय तक रहता है। केवली समुद्घात के समय जीव तीसरे, चौथे और पांचवें समय में अनाहारक रहता है उस अपेक्षा से कहा है। जिसकी अयोगी भवस्थ केवली अनाहारक जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट 'अंतर्मुहूर्त तक रहता है। अयोगित्व शैलेशी अवस्था में होता है और शैलेशी अवस्था में वह नियम से अनाहारक ही होता है क्योंकि औदारिक काययोग उस समय नहीं रहता। शैलेशी अवस्था का जघन्य और उत्कृष्ट काल अंतर्मुहूर्त ही है। किन्तु जघन्य से उत्कृष्ट का अंतर्मुहूर्त अधिक होता है। छउमत्थआहारगस्स० केवइयं कालं अंतरं०? गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं दो समया। केवलिआहारगस्स अंतरं अजहण्णमणुक्कोसेणं तिष्णि समया॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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