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________________ सर्व जीवाभिगम - द्विविध वक्तव्यता ३५३ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सर्वजीवों के दो भेद कहे गये हैं - १. आहारक और २. अनाहारक। कौन से जीव आहारक, अनाहारक होते हैं इसके लिए टीका में कहा है - विग्गहगइमावण्णा केवलिणो समुहया अजोगी या। सिद्धा य अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा॥ अर्थात् - विग्रहमति समापन्न, केवलि समुद्घात वाले केवली, अयोगी केवली और सिद्ध ये जीव अनाहारक होते हैं, शेष सभी जीव आहारक हैं। आहारक जीव दो प्रकार के हैं - १. छद्मस्थ आहारक और २. केवली आहारक। छद्मस्थ आहारक की जघन्य कायस्थिति दो समय कम क्षुल्लक भव है, यह विग्रह गति से आकर क्षुल्लक भव में उत्पन्न होने की अपेक्षा कही गयी है। तीन समय की विग्रह गति में से दो समय अनाहारकत्व के हैं। उन दो समयों को छोड़ कर शेष क्षुल्लकभव तक जीव जघन्य रूप से आहारक रह सकता है। उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात काल की है। यह असंख्यात काल, काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी प्रमाण और क्षेत्र की अपेक्षा अंगुल के असंख्यात भाग में जितने आकाश प्रदेश हैं उनमें से प्रति समय एक एक निकालने पर जितने समय में वे खाली होते हैं उतने उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप हैं। इतने काल तक जीव अविग्रह रूप से उत्पन्न हो सकता है। - केवली आहारक की जघन्य कायस्थिति अंतर्मुहूर्त है यह अन्तकृत केवली की अपेक्षा से है। उत्कृष्ट कायस्थिति देशोन पूर्वकोटि है। यह पूर्वकोटि आयुष्य वाले को नौ वर्ष की उम्र में केवलज्ञान होने की अपेक्षा समझना चाहिये। अणाहारए णं. भंते! कइविहे०! गोयमा! अणाहारए दुविहे पण्णत्ते, तंजहाछउमत्थअणाहारए य केवलिअणाहारए य, छउमत्थअणाहारए णं जाव केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं दो समया। केवलिअणाहारए दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सिद्धकेवलिअणाहारए य भवत्थकेवलिअणाहारए य॥ सिद्धकेवलिअणाहारए णं भंते! कालओ केवच्चिरं होइ? गोयम! साइए अपजवसिए॥ भवत्थकेवलिअणाहारए णं भंते! कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! भवत्थकेवलिअणाहारए दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए य अजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए य।सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए णं भंते! कालओ केवच्चिरं०? गोयमा! अजहण्णमणुक्कोसेणं तिण्णि समया। अजोगिभवत्थकेवलि० जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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