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जीवाजीवाभिगम सूत्र
आगमों में इस सम्बन्ध में आए हुए पाठों का कहीं पर भी विरोध नहीं आता है । प्रज्ञापना आदि सूत्रों में आये हुए पाठ 'जं समयं जाणइ ण तं समयं पासइ' आदि की तो अन्य उचित अपेक्षा एवं विवक्षा से संगति बिठाई जा सकती है । अतः सर्वत्र सब जीवों के दोनों प्रकार के उपयोगों का काल (जघन्य और उत्कृष्ट) अन्तर्मुहूर्त्त होना उचित ही ध्यान में आता है।
इस सम्बन्ध में ग्रन्थों में प्राचीन परम्परा 'केवलियों के दोनों उपयोगों की स्थिति एक-एक समय की होती है।' ऐसी ही मिलती है । आगम पाठों को देखते हुए तो अन्तर्मुहूर्त का ही उपयोग काल होना उचित ध्यान में आता है ।
प्राचीन ग्रन्थों के अन्वेषण करने से यदि अन्तर्मुहूर्त्त का उपयोग काल कहीं पर बताया ही तो ऐसा मानना उचित ही रहता है। जब तक अन्य आधार नहीं मिलते हैं तब तक तो प्राचीन परम्परा के अनुसार केवलियों के उपयोग का काल एक समय का ही मानना चाहिये ।' आधार मिलने पर पुनर्विचारणा करके इस सम्बन्ध में परिवर्तन भी किया जा सकता है ।
॥ तत्व केवली गम्यम् ॥
अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा- आहारगा चेव अणाहारगा चैव ॥ आहारए णं भंते! जाव केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! आहारए दुविहे पण्णत्ते, तंजहाछउमत्थआहारए य केवलिआहारए य, छउमत्थआहारए णं जाव केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहणेणं खुड्डागं भवग्गहणं दुसमऊणं उक्कोसेणं असंखेनं कालं जाव कालओ, खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइभागं । केवलिआहारए णं जाव केवच्चिरं होइ ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी ॥
भावार्थ - अथवा सर्व जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा आहारक और अनाहारक । प्रश्न- हे भगवन् ! आहारक, आहारक के रूप में कितने समय तक रहता है ?
उत्तर - हे गौतम! आहारक दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा - छद्मस्थ आहारक और केवलि
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आहारक ।
प्रश्न - हे भगवन् ! छद्मस्थ आहारक, आहारक के रूप में कितने काल तक रहता है ?
उत्तर - हे गौतम! जघन्य दो समय कम क्षुल्लक भव और उत्कृष्ट असंख्यात काल यावत् क्षेत्र से अंगुल का असंख्यातवां भाग ।
प्रश्न - हे भगवन् ! केवलि आहारक, आहारक के रूप में कितने समय तक रहता है ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य से अंतर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि ।
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