________________
३१२
जीवाजीवाभिगम सूत्र
का क्षेत्र असंख्यातगुणा हैं। उन से बादर निगोद असंख्यातगुणा हैं क्योंकि अत्यंत सूक्ष्म अवगाहना होने से तथा प्रायः जल में सर्वत्र होने से इसका असंख्यातगुणापन घटित होता है। बादर निगोद से बादर पृथ्वीकायिक असंख्यातगुणा हैं क्योंकि वे आठों पृथ्वियों, सब विमानों, सभी भवनों और पर्वत आदि में हैं। उनसे बादर अप्कायिक असंख्यातगुणा हैं क्योंकि समुद्रों में जल की प्रचुरता है, उनसे बादर वायुकायिक असंख्यातगुणा हैं क्योंकि पोलारों में भी वायु संभव है, उनसे बादर वनस्पतिकायिक अनन्तगुणा हैं क्योंकि प्रत्येक बादर निगोद में अनन्त जीव हैं। उनसे सामान्य बादर विशेषाधिक हैं क्योंकि बादर त्रसकायिक आदि भी उनमें सम्मिलित हैं।
एवं अपजत्तगाणवि२।पजत्तगाणंसव्वत्थोवा बायरतेउक्काइया बायरतसकाइया असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबायरा असंखेजगुणा सेसा तहेव जाव बायरा विसेसाहिया ३।
एएसि णं भंते! बायराणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो०?.
गोयमा! सव्वत्थोवा बायरा पजत्ता बायरा अपजत्तगा असंखेजगुणा, एवं सव्वे जहा बायरतसकाइया ४॥
भावार्थ - अपर्याप्तक बादरों का अल्पबहुत्व प्रथम अल्पबहुत्व के समान ही समझना चाहिए।
पर्याप्तक बादरों में-सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक, उनसे बादर त्रसकायिक असंख्यातगुणा, उनसे प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्यातगुणा, शेष सामान्य अल्पबहुत्व के अनुसार यावत् बादर विशेषाधिक है।
प्रश्न - हे भगवन्! इन बादर पर्याप्तकों-अपर्याप्तकों में कौन किनसे अल्प, बहुत्व, तुल्य या विशेषाधिक हैं?
उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े बादर पर्याप्तक, उनसे बादर अपर्याप्तक असंख्यातगुणा हैं यावत् बादर त्रसकायिकों के समान कह देना चाहिए।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में क्रमश: छह काय के अपर्याप्तकों पर्याप्तकों एवं अपर्याप्तकों एवं पर्याप्तकों का शामिल अल्पबहुत्व कहा गया है। जो इस प्रकार है -
दूसरा अल्प बहुत्व - सबसे थोड़े बादर त्रसकायिक अपर्याप्तक, उनसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणा हैं क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं। शेष अल्पबहुत्व औधिक (सामान्य) सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए।
तीसरा अल्प बहुत्व - सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक हैं क्योंकि ये आवलिका के समयों के वर्ग को कुछ समय कम आवलिका समयों से गुणा करने पर जितने समय होते हैं उनके . बराबर हैं। उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणा हैं क्योंकि वे प्रतर में अंगुल के संख्यातवें भाग मात्र जितने खण्ड होते हैं उनके बराबर हैं उनसे प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org