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________________ पंचम प्रतिपत्ति - अल्प बहुत्व ३१३ असंख्यातगुणा हैं क्योंकि वे प्रतर में अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र जितने खण्ड होते हैं उनके बराबर हैं। उनसे बादर निगोद पर्याप्तक असंख्यातगुणा हैं क्योंकि वे अत्यंत सूक्ष्म अवगाहना वाले तथा जलाशयों में सर्वत्र होते हैं। उनसे बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणा हैं क्योंकि अतिप्रभूत संख्येय प्रतर अंगुल के असंख्येयभाग खण्ड प्रमाण है। उनसे बादर अप्कायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणा हैं क्योंकि वे अतिप्रभूततर असंख्येय प्रतरांगुल असंख्येयभाग प्रमाण हैं। उनसे बादर वायुकायिक पर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि घनीकृत लोक के असंख्येय प्रतरों के संख्यातवें भागवर्ती क्षेत्र के आकाश प्रदेशों के बराबर है। उनसे बादर वनस्पति पर्याप्तक अनंतगुणा हैं क्योंकि प्रति बादर निगोद में अनन्तजीव हैं। उनसे सामान्य बादर पर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि बादर तेजस्कायिक आदि सब पर्याप्तकों का इनमें समावेश है। चौथा अल्पबहुत्व - चौथा अल्पबहुत्व बादर के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों को लेकर कहा गया है। सब जगह पर्याप्तक बादर से बादर अपर्याप्तक असंख्यातगुणा हैं क्योंकि एक बादर पर्याप्तक की निश्रा में असंख्यात बादर अपर्याप्तक पैदा होते हैं। कहा भी है "पज्जत्तगणिस्साए अपजत्तगा वक्कमति जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखेजा" एएसि णं भंते! बायराणं बायरपुढविकाइयाणं जाव बायरतसकाइयाण य पज्जत्तापजत्ताणं कयरे कयरेहिंतो०? गोयमा! सव्वत्थोवा बायरतेउक्काइया पजत्तगा बायरतसकाइया पज्जत्तगा असंखेजगुणा बायरतसकाइया अपज्जत्तगा असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया पज्जत्तगा असंखेजगुणा बायरणिओया पज्जत्तगा असंखेज० पुढविआउवाउपजत्तगा असंखेजगुणा बायरतेउअपजत्तगा असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबायरवणस्सइ० अप० असंखेजगुणा बायरणिओया अपज्जत्तगा असंखेजगुणा बायरपुढविआउवाउ-अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा बायरवणस्स० पज्जत्तगा अणंतगुणा बायरपज्जत्तगा विसेसाहिया बायरवणस्सइ० अपज्जत्ता असंखेजगुणा बायरा अपज्जत्तगा विसेसाहिया बायरा पजत्तगा विसेसाहिया ५। . भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बादरों में, बादर पृथ्वीकाय यावत् बादर त्रसकाय के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? ___उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक, उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणा, उनसे बादर त्रसकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणा, उनसे प्रत्येक शरीर बादर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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