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________________ २९८ जीवाजीवाभिगम सूत्र .000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 संख्यात कोटिकोटि प्रमाण विष्कंभ सूची के प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई श्रेणियों की आकाश राशि प्रमाण हैं। उनसे एकेन्द्रिय अनंतगुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकाय अनन्तानन्त हैं। २. अपर्याप्तकों का अल्प बहुत्व - सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक हैं क्योंकि ये एक प्रतर में अंगुल के असंख्यातवें भाग में जितने खण्ड होते हैं उतने प्रमाण में हैं। उनसे चउरिन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि ये प्रभूत अंगुल के असंख्यातवें भाग खण्ड प्रमाण हैं। उनसे तेइन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं वयोंकि ये प्रभूततर प्रतर अंगुल के असंख्यातवें भाग खण्ड प्रमाण हैं। उनसे बेइन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि ये प्रभूततम प्रतर अंगुल के असंख्यातवें भाग खण्ड प्रमाण हैं। उनसे एकेन्द्रिय अपर्याप्तक अनंतगुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकाय में अपर्याप्तक जीव सदा अनंतानंत होते हैं। उनसे सेन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक है। ३. पर्याप्तकों का अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक हैं क्योंकि चउंरिन्द्रिय जीव अल्प आयु वाले होने से लम्बे काल तक नहीं रहते हैं अतः पृच्छा के समय वे थोड़े हैं और प्रतर अंगुल के असंख्यातवें भाग खण्ड प्रमाण हैं उनसे बेइन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं क्योंकि ये प्रभूततर अंगुल के असंख्यातवें भाग खण्ड प्रमाण हैं। उनसे तेइन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि वे स्वभाव से ही प्रभूततर अंगुल के असंख्यातवें भाग खण्ड प्रमाण हैं उनसे एकेन्द्रिय पर्याप्तक अनंतगुणा हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक पर्याप्तक जीव अनंत हैं। उनसे सेन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं। एएसि णं भंते! सइंदियाणं पज्जत्तगअपजत्तगाणं कयरे कयरे हिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा सइंदिया अपजत्तगा सइंदिया पज्जत्तगा संखेजगुणा। एवं एगिदियावि। एएसि णं भंते! बेइंदियाणं पजत्तापजत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा बेइंदिया पजत्तगा अपजत्तगा असंखेजगुणा, एवं तेंदियचउरिदियपंचेंदियावि॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन सेन्द्रिय पर्याप्तक अपर्याप्तक में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? ____उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े सेन्द्रिय अपर्याप्तक उनसे सेन्द्रिय पर्याप्तक संख्यातगुणा है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय पर्याप्तक अपर्याप्तक का अल्प बहुत्व समझना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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