________________
२९०
जीवाजीवाभिगम सूत्र
पाठ को मानने पर वह पाठ बादर जीवों की अपेक्षा माना जा सकता है। टीकाकार ने भी पाठ के आशय को सम्यक् प्रकार से नहीं समझपाना स्वीकार किया है अतः इस पाठ में 'जाव' शब्द मानने पर सभी स्थावरों का समावेश हो ही जाना जरूरी नहीं है। अन्यत्र भी आगमों में 'जाव' शब्द से यथा योग्य पाठों का ही ग्रहण हुआ है। अतः यहाँ पर भी 'जाव' शब्द से तेजस्काय का ग्रहण नहीं करने पर भी कोई बाधा नहीं आती है। अलग-अलग अपेक्षाओं से दोनों प्रकार के पाठों की संगति बिठाई जा सकती है। 'तत्त्व केवली गम्य' इस प्रकार देवों का कथन यहाँ पूर्ण हुआ।
समुच्चय रूप में भवस्थिति आदि का वर्णन णेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता?
गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, एवं सव्वेसिं पुच्छा, तिरिक्खजोणियाणं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओक्माई, एवं मणुस्साणवि, देवाणं जहा णेरइयाणं॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों की कितनी स्थिति कही गई है ?
उत्तर - हे गौतम! नैरयिकों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपमकी है। इसी प्रकार सबके लिए प्रश्न कर लेना चाहिए। तिर्यंचों की स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। मनुष्यों की भी इतनी ही स्थिति है। देवों की स्थिति भी नैरयिकों के समान - समझनी चाहिए। _ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य और देव की समुच्चय स्थिति का कथन किया गया है।
नैरयिकों की जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति प्रथम रत्नप्रभा नरक के प्रथम प्रस्तर की अपेक्षा से और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति सातवीं नरक की अपेक्षा समझनी चाहिए।
तिर्यंचों और मनुष्यों की जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की कहीं है जो देवकुरु आदि की अपेक्षा से है।
देवों की जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति भवनपति और वाणव्यंतर देवों की अपेक्षा से और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति अनुत्तर विमान के देवों की अपेक्षा समझनी चाहिये।
देवणेरइयाणं जा चेव ठिई सच्चेव संचिट्ठणा, तिरिक्खजोणियस्स जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो, मणुस्से णं भंते! मणुस्सेत्ति कालओ केवच्चिरं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org