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तृतीय प्रतिपत्ति - समुच्चय रूप में भवस्थिति आदि का वर्णन
२९१ .000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 होइ ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुव्वकोडिपहत्तमब्भहियाई। णेरइयमणुस्सदेवाणं अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। तिरिक्खजोणियस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं॥ २२२॥
भावार्थ - देवों और नैरयिकों की जो भवस्थिति है वही उनकी संचिट्ठणा (कायस्थिति) है। तिर्यंच की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है।
प्रश्न - हे भगवन्! मनुष्य, मनुष्य के रूप में कितने काल तक रह सकता है ?
उत्तर - हे गौतम! मनुष्य, मनुष्य के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रह सकता है। - नैरयिक, मनुष्य और देवों का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। तिर्यंचों का अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक (दो सौ से नौ सौ सागरोपम) शत पृथक्त्व सागरोपम का है।
विवेचन - उसी उसी भव में उत्पन्न होने के काल को संचिट्ठण काल या कायस्थिति कहते हैं। देव मरकर देव रूप में और नैरयिक मरकर नैरयिक रूप से उत्पन्न नहीं होता है इसीलिये देवों और नैरयिकों की जो भवस्थिति है वही उनकी कायस्थिति कहलाती है।
तिर्यंच मर कर मनुष्य आदि गति में उत्पन्न हो सकते हैं अतः तिर्यंच की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और अनन्तकाल (वनस्पतिकाल) की कही है। मनुष्य की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम की कही है। उत्कृष्ट कायस्थिति महाविदेह आदि में सात मनुष्य भव (पूर्व कोटि स्थिति के) और आठवां भव देवकुरु आदि में उत्पन्न होने की अपेक्षा समझनी चाहिये।
- कोई जीव एक भव से मर कर फिर जितने काल बाद उसी भव में आता है, वह 'अंतर' कहलाता है। प्रस्तुत सूत्र में चारों गतियों का अन्तर बतलाया गया है। ... एएसि णं भंते! णेरइयाणं जाव देवाण य कयरे०? गोयमा! सव्वत्थोवा मणुस्सा णेरइया असं० देवा असं० तिरिया अणंतगुणा, से तं चउव्विहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता॥२२३॥
॥बीओ वेमाणिय देवुद्देसो समत्तो॥ ॥ तच्चा चउव्विहपडिवत्ती समत्ता॥
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