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जीवाजीवाभिगम सूत्र
उत्तर - हे गौतम! सौधर्म ईशान कल्प के देव दोनों प्रकार की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं। एक ही विकुर्वणा करते हुए वे एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय रूपों की विकुर्वणा कर सकते हैं और बहुत सारे रूपों की विकुर्वणा करते हुए वे बहुत एकेन्द्रिय रूपों की या पंचेन्द्रिय रूपों की विकुर्वणा कर सकते हैं। वे संख्यात या असंख्यात सरीखे या भिन्न-भिन्न, संबद्ध और असंबद्ध नाना रूप बना कर इच्छानुसार कार्य करते हैं। इसी प्रकार यावत् अच्युत कल्प के देवों तक कह देना चाहिये।
प्रश्न - हे भगवन् ! ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों के देव क्या एक रूप बनाने में समर्थ हैं या बहुत सारे रूप बनाने में समर्थ हैं.?
उत्तर - हे गौतम! वे एक रूप भी बना सकते हैं और बहुत सारे रूप भी बना सकते हैं किन्तु । उन्होंने ऐसी विकुर्वणा न तो पहले कभी की है, न वर्तमान में करते हैं और न ही भविष्य में कभी करेंगे।
विवेचन - ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान के देवों में उत्तरवैक्रिय करने की शक्ति तो होती है किन्तु प्रयोजन के अभाव तथा प्रकृति की उपशांतता के कारण उत्तर वैक्रिय नहीं करते हैं।
आत्म-प्रदेशों से घुले मिले रूपों को सम्बद्ध' कहा गया है तथा आत्म-प्रदेशों से रहित रूपों को 'असम्बद्ध' कहा गया है। वैक्रिय बनाते समय तो असम्बद्ध रूपों में भी आत्म-प्रदेशों का प्रयोग होता ही है। असम्बद्ध रूपों को बनाने में ज्यादा शक्ति चाहिए। आगम में नैरयिकों के सम्बद्ध विकुर्वणा बताई है। उसका अर्थ भी उपर्युक्त प्रकार से करने में कोई बाधा नहीं आती है। स्थानांग सूत्र (स्थान ४ उद्देशक ३) में जो औदारिक के सिवाय चार शरीरों को 'जीवेणफुडा' बताया गया है। उसका आशय 'मूल शरीर' समझना चाहिए। उत्तरवैक्रिय शरीर भी आत्म-प्रदेशों के निकलते ही बिखर जाता है, किन्तु उत्तर वैक्रिय रूप १५ दिन तक रह सकता है। वैक्रिय से बनाए हए घट पट आदि पदार्थों को उत्तर वैक्रिय रूप कहा जाता है एवं वैक्रिय से मूल शरीर को छोटा बड़ा आदि करना उत्तर वैक्रिय शरीर कहा जाता है। नारक देवों के मूल शरीर वैक्रिय होने से वैक्रिय लब्धि के द्वारा उसमें कुछ भी परिवर्तन करने को उत्तर वैक्रिय कहा जाता है। वायुकाय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय एवं मनुष्य के मूल शरीर औदारिक होने से वैक्रिय लब्धि से बनाए गये शरीर को वैक्रिय शरीर ही कहा जाता है। उत्तर वैक्रिय नहीं कहा जाता है।
वैमानिक देवों में साता-सौख्य सोहम्मीसाणदेवा० केरिसयं सायासोक्खं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति?
गोयमा! मणुण्णा सद्दा जाव मणुण्णा फासा जाव गेविजा, अणुत्तरोववाइया अणुत्तरा सदा जाव फासा॥
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