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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - वैमानिक देवों में विकुर्वणा २८३ विवेचन - नवग्रैवेयक एवं पांच अनुत्तर विमान के देवों में प्रयोग की अपेक्षा तीन समुद्घात बताई गई है। इनमें से वेदनीय समुद्घात असाता वेदनीय की अपेक्षा ही होने से इन देवों के पर्याप्त अवस्था में मानसिक असाता वेदना की अपेक्षा वेदनीय समुद्घात समझना चाहिए। पांच अनुत्तर विमान देवों के अपर्याप्तों में वेदनीय समुद्घात नहीं समझी जाती है। वेदनीय समुद्घात प्रमत्त अवस्था के तथाप्रकार के अध्यवसायों में ही होने से एवं इनमें अप्रमत्त साधकों का ही उपपात होने से वेदनीय समुद्घात नहीं होती है। वैमानिक देवों में क्षुधा-पिपासा सोहम्मीसाणदेवा० केरिसयं खुहप्पिवासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति? गोयमा! णत्थि खुहापिवासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति जाव अणुत्तरोववाइया॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सौधर्म ईशान कल्प के देव कैसी भूख-प्यास का अनुभव करते हुए विचरते हैं ? उत्तर - हे गौतम! उन देवों को भूख और प्यास की वेदना होती ही नहीं है। इसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देवों तक कह देना चाहिए। वैमानिक देवों में विकर्वणा . सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु देवा एगत्तं पभू विउव्वित्तए पुहुत्तं पभू विउव्वित्तए? हंता पभू, एगत्तं विउव्वेमाणा एगिंदियरूवं वा जाव पंचिंदियरूवं वा पहत्तं विउव्वेमाणा एगिदियरूवाणि वा जाव पंचिंदियरूवाणि वा, ताइं संखेजाइंपि अंखेज्जाइंपि सरिसाइंपि असरिसाइंपि संबद्धाइंपि असंबद्धाइंपि रूवाई विउव्वंति विउव्वित्ता अप्पणा जहिच्छियाई कज्जाइं करेंति जाव अच्चुओ, गेवेजणुत्तरोववाइया० देवा किं एगत्तं पभू विउव्वित्तए पुहुत्तं पभू विउवित्तए? गोयमा! एगत्तंपि पुहुत्तंपि, णो चेव णं संपत्तीए विउव्विंसु वा विउव्वंति वा विउव्विस्संति वा॥ . कठिन शब्दार्थ - एगत्तं - एकत्व (एक), पुहुत्तं - पृथक्त्व (अनेक-बहुत सारे), पभू - समर्थ, सरिसाइं - समान (सरीखे), असरिसाइं - भिन्न भिन्न, संबद्धाई - सम्बद्ध-आत्मप्रदेशों से समवेत, 'असंबद्धाइं - असम्बद्ध-आत्म प्रदेशों से भिन्न, जहिच्छियाइं - इच्छानुसार। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सौधर्म ईशान कल्प के देव एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं या बहुत सारे रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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