________________
२८२
जीवाजीवाभिगम सूत्र ..................................................०००००००००००००
सौधर्म और ईशान कल्प के देव पहली रत्नप्रभा नरक पृथ्वी के चरमान्त तक, सनत्कुमार और माहेन्द्र दूसरी शर्करा प्रभा पृथ्वी के चरमान्त तक, ब्रह्म और लांतक तीसरी नरक पृथ्वी तक, शुक्र और सहस्रार चौथी नरक पृथ्वी तक, आणत प्राणत आरण अच्युत कल्प के देव पांचवीं नरक पृथ्वी तक अवधिज्ञान के द्वारा जानते देखते हैं ॥ १-२॥
___ अधस्तन ग्रैवेयक, मध्यम ग्रैवेयक देव छठी नरक पृथ्वी के चरमान्त तक और उपरितन ग्रैवेयक देव सातवीं नरक पृथ्वी तक देखते हैं अनुत्तर विमानवासी देव सम्पूर्ण चौदह राजू प्रमाण लोकनाली को अवधिज्ञान से जानते देखते हैं।
विवेचन - शंका - सौधर्म और ईशान कल्प के देवों का जघन्य अवधिज्ञान अंगुल का असंख्यातवां भाग कैसे कहा गया है ? क्योंकि इतना जघन्य अवधिज्ञान तो मनुष्य और तिर्यंचों में ही होता है, देवों में तो मध्यम अवधिज्ञान होता है ?
समाधान - इस शंका के समाधान में टीकाकार ने निम्न गाथा दी है - वेमाणियाणभंगुलभागमसंखं जहण्णओ ओही। उववाए परभविओ तब्भवओ होइ तो पच्छ।॥१॥
अर्थात् - यहाँ जिस जघन्य अवधिज्ञान को देवों में होना बतलाया है वह उन सौधर्म आदि देवों के उपपात काल में पारभविक अवधिज्ञान को लेकर बतलाया गया है, तद्भवज अवधिज्ञान को लेकर नहीं।
नरक देवों आदि के अवधिज्ञान का क्षेत्र प्रमाण अंगुल के माप से जानना चाहिए। अवधिज्ञान सम्बन्धित विशेष वर्ण प्रज्ञापना सूत्र के ३३ वें पद में बताया गया है।
वैमानिक देवों में समुद्घात सोहम्मीसाणेसु णं भंते!० देवाणं कइ समुग्धाया पण्णत्ता?
गोयमा! पंच समुग्घाया पण्णत्ता, तंजहा-वेयणासमुग्घाए कसाय० मारणंतिय० वेउव्विय० तेयासमुग्घाए., एवं जाव अच्चुए। गेवेज्जअणुत्तराणं आइल्ला तिण्णि समुग्घाया पण्णत्ता॥ ___ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सौधर्म ईशान कल्प के देवों में कितने समुद्घात कहे गये हैं?
उत्तर - हे गौतम! सौधर्म ईशान कल्प के देवों के पांच समुद्घात कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं - १. वेदनीय समुद्घात २ कषाय समुद्घात ३. मारणान्तिक समुद्घात ४. वैक्रिय समुद्घात और ५. तेजस समुद्घात । इसी प्रकार अच्युत कल्प के देवों तक पांच समुद्घात कह देने चाहिए। ग्रैवेयक और अनुत्तर देवों में आदि के (प्रारंभ के) तीन समुद्घात होते हैं। यथा-वेदनीय, कषाय और मारणांतिक।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org