SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८० *** जीवाजीवाभिगम सूत्र वैमानिक देवों में श्वासोच्छ्वास सोहम्मीसाणदेवाणं० केरिसया पुग्गला उस्सासत्ताए परिणमंति ? गोयमा ! जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव ते तेसिं उस्सासत्ताए परिणमंति जाव अणुत्तरोववाइया, एवं आहारत्ताएवि जाव अणुत्तरोववाइया ॥ भावार्थ - प्रश्न ०००००० Jain Education International - हे भगवन् ! सौधर्म - ईशान कल्पों के देवों के श्वास रूप में कैसे पुद्गल परिणत होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! जो पुद्गल इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ और मनाम होते हैं वे उनके श्वास के रूप में परिणत होते हैं। इसी प्रकार यावत् अनुत्तरौपपातिक देवों के विषय में समझ लेना चाहिए। श्वास के समान ही आहार के पुद्गल भी समझना चाहिये। इसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देवों तक कह देना चाहिए। वैमानिक देवों में लेश्या सोहम्मीसाणदेवाणं० कइ लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा!एगा तेउलेस्सा पण्णत्ता। सणकुमारमाहिंदेसु एगा पम्हलेस्सा, एवं बंभलोएवि पम्हा, सेसेसु एक्का सुक्कलेस्सा, अणुत्तरोववाइयाणं० एक्का परमसुक्कलेस्सा ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सौधर्म और ईशान कल्प के देवों में कितनी लेश्याएं कही गई हैं ? उत्तर - हे गौतम! सौधर्म और ईशान देवों में एक तेजोलेश्या होती है। सनत्कुमार और माहेन्द्र में एक पद्मलेश्या होती है । ब्रह्मलोक में पद्म लेश्या होती है शेष सभी में एक शुक्ल लेश्या होती है। अनुत्तरौपपातिक देवों में परमशुक्ल लेश्या होती है। वैमानिक देवों में दृष्टि सोहम्मीसाणदेवा ० किं सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी ? गोयमा ! तिण्णिवि, जाव अंतिमगेवेज्जा देवा सम्मदिट्ठीवि मिच्छादिट्ठीवि सम्मामिच्छादिट्ठीवि, अणुत्तरोववाइया सम्मदिट्ठी णो मिच्छादिट्ठी णोसम्मामिच्छादिट्ठी ॥ हे भगवन् ! सौधर्म - ईशान कल्प के देव सम्यग् दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं या 0 भावार्थ - प्रश्न सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं ? उत्तर - हे गौतम! सौधर्म ईशान कल्प के देव तीनों प्रकार के हैं यावत् ग्रैवेयक तक समझ लेना चाहिये। अनुत्तर विमान के देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं वे मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि नहीं होते । For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy