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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - चन्द्र सूर्य वर्णन २५७ ...........sorrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrotest कठिन शब्दार्थ - वाघाइमे - व्याघातिम (कृत्रिम), णिव्वाघाइमे - निर्व्याघातिम (स्वाभाविक)। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जंबूद्वीप में एक तारे से दूसरे तारे का कितना अंतर कहा गया है ? उत्तर - हे गौतम! अंतर दो प्रकार का कहा गया है। यथा - व्याघातिम (कृत्रिम) और निर्व्याघातिम (स्वाभाविक)। व्याघातिम अंतर जघन्य दो सौ छियासठ योजन (२६६) का और उत्कृष्ट बारह हजार दो सौ बयालीस (१२,२४२) योजन का है। निर्व्याघातिम अंतर जघन्य पांच सौ धनुष और उत्कृष्ट दो कोस का समझना चाहिये। विवेचन - व्याघात की अपेक्षा एक तारे से दूसरे तारे का जघन्य और उत्कृष्ट अंतर इस प्रकार समझना चाहिये - नीषध और नीलवंत पर्वत के कूट ऊपर से दो सौ पचास (२५०) योजन लम्बे चौड़े हैं। कूट की दोनों ओर से आठ आठ योजन को छोड़कर तारा मंडल चलता है अत: दो सौ छियासठ (२६६) योजन (२५०+१६) का जघन्य अंतर कहा है। उत्कृष्ट अंतर मेरु पर्वत की अपेक्षा कहा है-मेरु पर्वत की चौड़ाई दस हजार योजन की है। मेरु पर्वत के दोनों ओर से ग्यारह सौ इक्कीस-ग्यारह सौ इक्कीस. ११२१-११२१ योजन को छोड़कर तारा मंडल चलता है अत: उत्कृष्ट अंतर बारह हजार दो सौ बयालीस १२२४२ (१०,०००+२२४२) योजन का आ जाता है। . चंदस्स णं भंते! जोइसिंदस्स जोइसरण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? गोयमा! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-चंदप्पभा दोसिणाभा अच्चिमाली पभंकरा, एत्थ णं एगमेगाए देवीए चत्तारि चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवारे य, पभू णं तओ एगमेगा देवी अण्णाइं चत्तारि चत्तारि देविसहस्साइं परिवारं विउव्वित्तए, एवामेव सपुव्वावरेणं सोलस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, से तं तुडिए॥२०२॥ . भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र की कितनी अग्रमहिषियां हैं ? उत्तर - हे गौतम! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र की चार अग्रमहिषियां कही गई हैं वे इस प्रकार हैं - चन्द्रप्रभा, ज्योत्स्नाभा, अर्चिमाली और प्रभंकरा। इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषी अन्य चार हजार देवियों की विकुर्वणा कर सकती हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर सोलह हजार देवियों का परिवार है। यह चन्द्रदेव के तुटिक अन्तःपुर का वर्णन हुआ। पभू णं भंते! चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए चंदंसि सीहासणंसि तुडिएण सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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