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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - चन्द्र सूर्य वर्णन २५१ पूंछे, अप्फोडियसीहणाइयबोलकलकलरवेणं - आस्फोटित सिंहनाद बोलकलकल रवेण-जोर जोर से सिंहनाद करते हुए और उस सिंहनाद से, वइरामयकुंभजुयलसुट्ठिय पीवरवरवइरसोंडवट्टियदित्तसुरत्तपउमप्पगासाणं - वज्रमय कुंभ युगल सुस्थित पीवरवर वज्र शुण्डवर्तित दीप्त सुरक्त पद्म प्रकाशानां-वज्रमय कुम्भ युगल के नीचे रही हुई सुंदर मोटी सूंड में जिन्होंने क्रीडार्थ लाल पद्मों के प्रकाश को ग्रहण किया हुआ है यानी जब हाथी युवावस्था में वर्तमान रहता है तो उसके कुंभस्थल से लेकर शुण्डादण्ड तक स्वतः ही पद्मप्रकाश के समान बिंदु उत्पन्न हो जाया करते हैं, मधुवण्णभिसंतणिद्धपिंगलपत्तलतिवण्णमणिरयणलोयणाणं - मधुवर्ण भासमान स्निग्ध पिंगल पत्रल त्रिवर्ण मणि रत्न लोचनानाम्-शहद वर्ण के चमकते हुए स्निग्ध पीले और पक्ष्म युक्त मणिरत्न की तरह त्रिवर्ण (श्वेत, कृष्ण, पीत) वाले नेत्र, धवलसरिससंठियणिव्वणदढकसिण फालियामयसुजायदंतमुसलोवसोभियाणं- धवल सदृश संस्थित निव्रण दृढ कृत्स्न स्फटिकमय सुजातदंत मुसलोपशोभितानां, सफेद, एक सरीखे, मजबूत, परिणत अवस्था वाले सुदृढ संपूर्ण स्फटिकमय सुजात और मूसल की उपमा से सुशोभित दांत वाले, कंचणकोसीपविट्ठदंतग्ग विमलमणिरयणरुइलपेरंत चित्तरुवगविराइयाणं - कांचनकोशी प्रविष्ट दन्ताग्रविमल मणिरत्न रुचिर पर्यन्त चित्ररूपक विराजितानां-दांतों के अग्रभाग में स्वर्ण वलय पहनाये गये हैं अतएव ये दांत ऐसे मालूम होते हैं जैसे विमल मणियों के बीच चांदी का ढेर लगा हो, तवणिज्जविसालतिलगपमहपरिमंडियाणं - मस्तक पर तपनीय स्वर्ण के विशाल तिलके आदि आभूषण पहनाये हुए हैं, णाणामणिरयण गुलियगेवेज्जबद्धगलपवर भूसणाणं - नाना मणियों से निर्मित ऊर्ध्व ग्रैवेयक कंठ के आभरण गले में पहनाये हुए हैं, वइरामयतिक्खलट्ठअंकुसकुंभजुयलंतरोदियाणं - वज्रमय तीक्ष्णलष्ट: अंकुश युगलान्तरोदितानाम्-वज्रमय तीक्ष्ण एवं सुंदर अंकुश गंडस्थलों के मध्य सथापित किये हुए हैं, जंबूणय विमलघण मंडलवइरामयलीलाललियताल-णाणामणिरयण घंटपासगरययामयरज्जूबद्धलंबियघंटाजुयलमहुरसरमणहराणं - जम्बूनद विमल घन मण्डल वज्रमय लालाललितताल नानामणिरत्न घण्टा पार्श्वगरजतमय रज्जूबद्धावलम्बित घण्टा युगल मधुर स्वरहराणाम्-जम्बूनद स्वर्ण के बने घनमंडल वाले और वज्रमय लाला से ताडित तथा आसपास नाना मणियों की छोटी छोटी घंटिकाओं से युक्त रजतमयी रज्जू में लटके दो बड़े घंटों के मधुर स्वर से जो मनोहर लगते हैं, अल्लीणपमाणजुत्तवट्टिय सुजायलक्खणपसस्थतवणिज्जवालगत्तपरिपुच्छणाणं - आलीनप्रमाणयुक्तवर्तितसुजात लक्षण प्रशस्त तपनीयवालगात्रपरिपुञ्छनानाम्-पूंछे चरणों तक लटकती हुई है गोल है इनमें सुजात और प्रशस्त लक्षण वाले रमणीय बाल हैं जिनसे हाथी अपने शरीर को पोंछते रहते हैं, घणणिचियसुबद्धलक्खणुण्णयईसिआणयवसभोट्ठाणं - घननिचितसुबद्धलक्षणोन्नत ईषदानतवृषभौष्ठानां-घन के समान निचित-मांसयक्त जबड़ों से अच्छी तरह बद्ध. लक्षणोपेत उन्नत एवं थोड़े झुके हुए ओष्ठ, जुत्तप्पमाणप्पहाणलक्खणपसत्थ रमणिज्जगग्गरगलसोभियाणं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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