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________________ २३६ । जीवाजीवाभिगम सूत्र 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कइणं भंते! समुद्दा पत्तेगरसा पण्णत्ता? गोयमा! चत्तारि समुद्दा पत्तेयरसा पण्णत्ता, तंजहा-लवणे वरुणोदे खीरोदे घओदे॥ कई णं भंते! समुद्दा पगईए उदगरसेणं पण्णत्ता? गोयमा! तओ समुद्दा पगईए उदगरसेणं पण्णत्ता, तंजहा-कालोए पुक्खरोए सयंभूरमणे, अवसेसा समुद्दा उस्सण्णं खोयरसा पण्णत्ता समणाउसो!॥१८७॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! कितने समुद्र प्रत्येक रस वाले कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! चार समुद्र प्रत्येक रस वाले हैं अर्थात् वैसा रस अन्य किसी दूसरे समुद्र का नहीं है। यथा - लवण, वरुणोद, क्षीरोद, घृतोद। प्रश्न - हे भगवन् ! कितने समुद्र प्रकृति से उदग रस वाले हैं ? उत्तर - हे गौतम! तीन समुद्र प्रकृति से उदग रस वाले हैं अर्थात् इनका जल स्वाभाविक पानी जैसा ही हैं। वे हैं - कालोद (कालोदधि), पुष्करोद और स्वयंभूरमण समुद्र। हे आयुष्मन् श्रमण! शेष सभी समुद्र प्रायः क्षोद रस-इक्षुरस वाले कहे गये हैं। विवेचन - उपर्युक्त मूल पाठ में 'उस्सण्णं' शब्द आया है। जिसका अर्थ - प्रायः (बहुलता से) . किया गया है। इस शब्द से यह ध्वनित होता है कि - अधिकांश समुद्रों का पानी इक्षुरस जैसा होता है . किन्तु उन समुद्रों में भी देवों के क्रीड़ा करने की बावड़ियों आदि में रहा हुआ पानी तो स्वाभाविक उदक रस जैसा ही होना चाहिए। क्योंकि इक्षुरस जैसा पानी क्रीड़ा आदि के योग्य नहीं होता है। तथा किसी किसी समुद्र का अधिकांश पानी भी स्वाभाविक उदक रस जैसा हो सकना संभव है। समुद्रों में मच्छ-कच्छ आदि कइणं भंते! समुद्दा बहुमच्छकच्छभाइण्णा पण्णत्ता? गोयमा! तओ समुद्दा बहुमच्छकच्छभाइण्णा पण्णत्ता, तंजहा-लवणे कालोदे सयंभूरमणे, अवसेसा समुद्दा अप्पमच्छकच्छभाइण्णा पण्णत्ता समणाउसो!॥ लवणे णं भंते! समुद्दे कइ मच्छजाइकुलकोडिजोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता? गोयमा! सत्त मच्छजाइकुल-कोडीजोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता॥ कालोए णं भंते! समुद्दे कइ मच्छजाइ० पण्णत्ता? गोयमा! णव मच्छ जाइकुलकोडीजोणी०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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