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________________ २०८ . जीवाजीवाभिगम सूत्र - विवेचन - मनुष्य लोक की सीमा करने वाला होने से मानुषोत्तर पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत कहलाता है। जहां तक भरतादि क्षेत्र, वर्षधर पर्वत, घर, दुकान मकान, ग्राम, नगर, राजधानी, अरिहंत आदि श्लाघनीय पुरुष, प्रकृति से भद्र विनीत मनुष्य आदि, समय आदि का व्यवहार, विद्युत, मेघगर्जन, मेघोत्पत्ति, बादर अग्नि, खान, नदियां, निधियां, कुएं, तालाब तथा आकाश में चन्द्र सूर्य आदि का गमन आदि है वहां तक मनुष्य लोक है। मनुष्य लोक से बाहर इन सब का अस्तित्व नहीं है अर्थात् मानुषोत्तर पर्वत से परे-बाहर की ओर इन सब पदार्थों और व्यवहारों का सद्भाव नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त समय, आवलिका आदि शब्दों का अर्थ इस प्रकार है - समय - काल का सबसे सूक्ष्म अंश जिसका फिर विभाग न हो सके वह 'समय' कहलाता है। समय की सूक्ष्मता को समझने के लिये आगमकारों ने जो स्थूल उदाहरण दिया है वह इस प्रकार है - जैसे कोई तरुण, बलवान्, हृष्ट पुष्ट, स्वस्थ और निपुण कलाकुशल दर्जी का पुत्र किसी जीर्ण शीर्ण साड़ी को हाथ में लेते ही शीघ्र ही फाड़ देता है। देखने वालों को ऐसा प्रतीत होता है कि इसने पल भर में साड़ी को फाड़ दिया है परंतु तत्त्वदृष्टि से उस साड़ी को फाड़ने में असंख्यात समय लगे हैं क्योंकि साड़ी में अगणित तंतु हैं। ऊपर का तंतु फटे बिना नीचे का तंतु फट नहीं सकता है अतएव यह मानना पड़ता है कि प्रत्येक तंतु के फटने का काल अलग अलग है। वह तंतु भी कई रेशों से बना हुआ है वे रेशे भी क्रम से फटते हैं। अतएव साड़ी के उपरि तंतु के उपरितन रेशे के फटने में जितना समय लगा उससे भी बहुत सूक्ष्मतर समय कहा गया है। जघन्ययुक्त असंख्यात समयों की एक आवलिका होती है। संख्यात आवलिकाओं का एक उच्छ्वास होता है। संख्यात आवलिकाओं का एक निःश्वास होता है। एक उच्छ्वास और एक निःश्वास मिल कर एक आनप्राण होता है। सात आनप्राणों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव होता है। ७७ लवों का एक मुहूर्त होता है। (१,६७,७७,२१६) एक करोड़ सडसठ लाख सत्तत्तर हजार दो सौ सोलह आवलिकाओं का एक मुहूर्त होता है और एक मुहूर्त में तीन हजार सात सौ त्रयोतर उच्छ्वास होते हैं। तीस मुहूर्तों का एक अहोरात्र, पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष, दो पक्षों का एक मास, दो मास की एक ऋतु होती है। तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयन का एक संवत्सर (वर्ष), पांच संवत्सर का एक युग, बीस युग का सौ वर्ष। दस सौ वर्ष का हजार वर्ष, १०० हजार वर्ष का एक लाख वर्ष, ८४ लाख वर्ष का एक पूर्वांग, ८४ लाख पूर्वांग का एक पूर्व, ८४ लाख पूर्वो का एक त्रुटितांग, ८४ लाख त्रुटितांगों का एक त्रुटित, ८४ लाख त्रुटितों का एक अड्डांग, ८४ लाख अड्डांगों का एक अड्ड, ८४ लाख Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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