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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - समय क्षेत्र (मनुष्य क्षेत्र) का वर्णन २०९ •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• अड्डों का एक अववांग ८४ लाख अववांगों का एक अवव, ८४ लाख अववों का एक हूहूकांग, ८४ लाख हुहूकांगों का एक हुहुक, ८४ लाख हुहुकों का एक उत्पलांग, ८४ लाख उत्पलांगों का एक उत्पल, ८४ लाख उत्पलों का एक पद्मांग, ८४ लाख पद्मांगों का एक पद्म, ८४ लाख पद्मों का एक नलिनांग, ८४ लाख नलिनांगों का एक अर्थ निकुरांग, ८४ लाख अर्थ निकुरांगों का एक नलिन, ८४ लाख नलिनों का एक अर्थनिकुर, ८४ लाख अर्थनिकुरों का एक अयुतांग, ८४ लाख अयुतांगों का एक अयुत, ८४ लाख अयुतों का एक प्रयुतांग, ८४ लाख प्रयुतांगों का एक प्रयुत, ८४ लाख प्रयुतों का एक नयुतांग, ८४ लाख नयुतांगों का एक नयुत, ८४ लाख नयुतों का एक चूलिकांग, ८४ लाख चूलिकांगों की एक चूलिका, ८४ लाख चूलिकाओं की एक शीर्ष प्रहेलिकांग, ८४ लाख शीर्ष प्रहेलिकांगों की एक शीर्ष प्रहेलिका होती है। इस तरह जैन सिद्धान्तानुसार समय से लगा कर शीर्ष प्रहेलिका पर्यन्त काल की गणना की गयी है। इससे आगे का काल उपमा से जाना जाता है। पल्योपम और सागरोपम औपमिक काल है। दस कोडाकोडी पल्योपम का एक सागरोपम होता है। दस कोडाकोडी सागरोपम का एक अवसर्पिणी काल और दस कोडाकोडी सामरोपम का ही एक उत्सर्पिणी काल होता है। एक अवसर्पिणी और एक उत्सर्पिणी काल का एक कालचक्र होता है। कालद्रव्य मनुष्य क्षेत्र में ही है अत: उपरोक्त कालों का व्यवहार मनुष्य लोक में ही होता है। - अंतो णं भंते! मणुस्सखेत्तस्स जे चंदिमसूरियगहगणणक्खत्ततारारूवा ते णं भंते! देवा किं उड्डोववण्णगा कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णगा चारद्विइया गइरइया गइसमावण्णगा? ____ गोयमा! ते णं देवा णो उड्डोववण्णगा णो कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णगा णो चारद्विइया गइरइया गइसमावण्णगा उड्डमुहकलंबुयपुप्फसंठाणसंठिएहिं जोयणसाहस्सिएहिं तावखेत्तेहि साहस्सियाहिं बाहिरियाहिं वेउव्वियाहिं परिसाहिं महया हयणट्टगीयवाइयतंती-तलतालतुडिय घणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा महया महया उक्किट्ठसीहणायबोलकलकलसद्देणं विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणा अच्छयपव्वयरायं पयाहिणावत्तमंडलयारं मेरुं अणुपरियडंति॥ - कठिन शब्दार्थ- उड्डोववण्णगा - ऊोपपन्नका:-ऊर्ध्व विमानों में उत्पन्न हुए, कप्पोववण्णगाकल्पोपपन्नका:-कल्पों में उत्पन्न हुए, चारोववण्णगा - चारोपपन्नका:-ज्योतिषी विमानों में उत्पन्न हुए, चारट्ठिईया - चारस्थितिका:-गति रहित, गइरइया - गतिरतिक-गति में रति वाले, गइसमावण्णगा - गति समापन्ना:-गति को प्राप्त, उड्डमुहकलंबुयपुप्फसंठाणसंठिएहिं - ऊर्ध्वमुख कदम्ब पुष्प की तरह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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