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तृतीय प्रतिपत्ति - समय क्षेत्र (मनुष्य क्षेत्र) का वर्णन
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जावं च णं चंदोंवरागाइ वा सूरोवरागाइ वा चंदपरिवेसाइ वा सूरपरिवेसाइ वा पडिचंदाइ वा पडिसूराइ वा इंदधणूइ वा उदगमच्छेइ वा कविहसिवाइ वा तावं च णं अस्सिं लोएत्ति प०, जावं च णं चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं अभिगमणणिग्गमण-वुड्डि-णिवुड्डि-अणवट्ठियसंठाणसंठिई आघविज्जइ तावं च ण अस्सिं लोएत्ति पवुच्चइ॥१७८॥ ____कठिन शब्दार्थ - आणापाणूइ - आनप्राण (श्वासोच्छ्वास), थोवाइ - स्तोक (सात श्वासोच्छ्वास प्रमाण), लवाइ - लव (सात स्तोक), उऊइ - ऋतु, अयणाइ - अयन ((छह मास), संवच्छराइ - संवत्सर (वर्ष), जुगाइ - युग (पांच वर्ष), पुव्वंगाइ - पूर्वांग, तुडियंगाइ - त्रुटितांग, सीसयहेलियंगेइ - शीर्ष प्रहेलिकांग, सीसपहेलियाइ - शीर्ष प्रहेलिका, विजुयारे - विद्युत, थणियसहेस्तनित-मेघगर्जन, चंदोवरागाइ- चन्द्रोपराग-चन्द्रग्रहण, सूरोवरागाइ - सूर्य ग्रहण, चंदपरिवेसाइ - चन्द्र परिवेष, पडिसूराइ - प्रतिसूर्य, उदगमच्छेइ - उदक मत्स्य, कविहसिवाइ - कपिहसित।
भावार्थ:- जहां तक यह मानुषोत्तर पर्वत है वहीं तक यह मनुष्य लोक है अर्थात् मनुष्य लोक में ही वर्ष, वर्षधर, गृह आदि हैं इससे बाहर नहीं आगे सर्वत्र ऐसा ही समझना चाहिये जहां तक भरत आदि क्षेत्र और वर्षधर पर्वत हैं वहां तक मनुष्य लोक है। जहां तक घर या दुकान आदि हैं वहां तक मनुष्य लोक है जहां तक ग्राम यावत् राजधानी है वहां तक मनुष्य लोक है। जहां तक अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, जंघाचारण मुनि, विद्याचारण मुनि, श्रमण, श्रमणियां, श्रावक श्राविकाएं और प्रकृति से भद्र विनीत मनुष्य हैं वहां तक मनुष्य लोक है।
जहां तक समय, आवलिका, आनप्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त, दिन, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, सौं वर्ष, हजार वर्ष, लाख वर्ष, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, इसी क्रम से अड, अवव, हुडूक, उत्पल, पद्म, नलिन, अर्थनिकुर, अयुत, प्रयुत, नयुत, चूलिका, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल है वहां तक मनुष्य लोक है।
जहां तक बादर विद्युत और बादर स्तनित (मेघ गर्जन) है जहां तक बहुत से उदार-बड़े मेघ उत्पन्न होते हैं, सम्मूर्छित होते हैं-बनते हैं बिखरते हैं, वर्षा बरसाते हैं वहां तक मनुष्य लोक है। जहां तक बादर अग्नि है वहां तक मनुष्य लोक है। जहां तक खान, नदियां और निधियां हैं, कुएं, तालाब आदि है, वहां तक मनुष्य लोक है।
जहां तक चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, चन्द्रपरिवेष, सूर्य परिवेष, प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य, इन्द्रधनुष, उदकमत्स्य और कपिहसित आदि हैं वहां तक मनुष्य लोक है। जहां तक चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं का अभिगमन, निर्गमन, चन्द्र की वृद्धि हानि तथा चन्द्र आदि की सतत गतिशीलता रूप स्थिति कही जाती है वहां तक मनुष्य लोक है।
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