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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - समय क्षेत्र (मनुष्य क्षेत्र) का वर्णन १९५ अड़तालीस लाख बावीस हजार दो सौ कोडाकोडी तारे शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होंगे। विवेचन - जम्बूद्वीप सभी द्वीप समुद्रों से छोटा होने से वहां के दो चन्द्र सूर्यों का परिवार रूप तारे जम्बद्वीप में नहीं समा सकते अतः उन्हें लवण समद्र में रहना पडता है। अतः लवण समद्र में ३३ हजार तीन सौ तेतीस योजन तथा एक योजन का तिहाई भाग (३३३३३१) तक जम्बूद्वीप के चन्द्र सूर्यों का उद्योत आतप पहुंचता है। परन्तु आगे के द्वीप समुद्र विस्तृत होने से वहां के चन्द्र सूर्यों का परिवार वहीं समा जाता है। अतः वहां के चन्द्र सूर्यों के ताप क्षेत्र की सीमा अन्य द्वीप आदि में नहीं है तथा लवण आदि समुद्रों में भी ताप क्षेत्र की सीमा समान नहीं है। समय क्षेत्र (मनुष्य क्षेत्र) का वर्णन .. समयखेत्ते णं भंते! केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते? गोयमा! पणयालीसं जोयणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं एगा जोयणकोडी जावब्भितरपुक्खरद्धपरिरओ से भाणियव्वो जाव अउणपण्णे॥ ... . से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ-माणुसखेत्ते माणुसखेत्ते? गोयमा! माणुसखेत्ते णं तिविहा मणुस्सा परिवति, तंजहा-कम्मभूमगा अकम्मभूमगा अंतरदीवगा, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चा-माणुसखेत्ते माणुसखेत्ते॥ . माणुसखेत्ते णं भंते! का चंदा पभासेंसुवा ३? कइ सूरा तविंसु वा ३०० गोयमा! बत्तीसं चंदसयं बत्तीसं चेव सूरियाण सयं। सयलं मणुस्सलोयं चरेंति एए पभासेंता॥ १॥ एक्कारस य सहस्सा छप्पि य सोला महग्गहाणं तु। छच्च सया छण्णउया णक्खत्ता तिण्णि य सहस्सा॥२॥ अडसीइ सयसहस्सा चत्तालीस सहस्स मणुयलोगंमि। सत्त य सया अणूणा तारागणकोडिकोडीणं॥३॥सोभं सोभेसु वा ३॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! समय क्षेत्र का आयाम विष्कम्भ कितना है और परिधि कितनी है? उत्तर - हे गौतम! समय क्षेत्र (मनुष्य क्षेत्र) का आयाम विष्कम्भ पैंतालीस (४५) लाख योजन का है और परिधि वही है जो आभ्यंतर पुष्करार्द्ध की कही थी अर्थात् एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनपचास (१,४२,३०,२४९) योजन की परिधि है। प्रश्न - हे भगवन् ! मनुष्य क्षेत्र, मनुष्य क्षेत्र क्यों कहलाता है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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