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________________ १८२ जीवाजीवाभिगम सूत्र देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्ठिइया०, हरिवासरम्पयवासेसु मणुया पगइभद्दगा०, गंधावइमालवंतपरियाएसु वट्टवेयड्ढपव्वएसु देवा महिड्डिया०, णिसढणीलवंतेसु वासहरपव्वएसु देवा महिड्डिया०, सव्वाओ दहदेवयाओ भाणियव्वाओ, पउमद्दहतिगिच्छिकेसरिदहावसाणेसु देवयाओ महिड्डियाओ० तासिं पणिहाए० पुव्वविदेहावरविदेहेसु वासेसु अरहंत चक्कवट्टि बलदेव वासुदेवा चारणा विजाहरा समणा समणीओ सावया सावियाओ मणुया पगइ० तेसिं पणिहाए लवण० सीयासीओयगासु सलिलासु देवयाओ महिड्डिया०, देवकुरुउत्तरकुरुसु मणुया पगइभद्दगा०, मंदरे पव्वए देवयाओ महिड्डिया०, जंबूए य सुदंसणाए जंबूदीवाहिवई अणाढिए णामं देवे महिड्डिए जाव पलिओवमट्ठिइए परिवसइ तस्स पणिहाए लवणसमुद्दे० णो उवीलेइ णो उप्पीलेइ णो चेव णं एक्कोदगं करेइ, अदुत्तरं च णं गोयमा! लोगढ़िई लोगाणुभावे जण्णं लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीवं णो उवीलेइ णो उप्पीलेइ णो चेव णमेगोदगं करेइ ॥ १७३॥ . ॥मंदरोडेसो समत्तो॥.. __ कठिन शब्दार्थ - उवीलेइ - आप्लावित करता है, उप्पीलेइ - उत्पीडित करता है, एक्कोदगं - जलमग्न करता है, पगइभद्दया - प्रकृति से भद्र, पगइविणीया - प्रकृति से विनीत, पगइउवसंता - प्रकृति से उपशांत, पगइपयणुकोहमाणमायालोभा - प्रकृति से मंद क्रोध, मान, माया, लोभ वाले, मिउमद्दवसंपण्णा - मृदु मार्दव संपन्न, अल्लीणा - आलीन, भद्दगा - भद्र, विणीया - विनीत। . . . भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! यदि लवण समुद्र .चक्रवाल विष्कम्भ से दो लाख योजन का है, पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनचालीस योजन से कुछ कम उसकी परिधि है, एक हजार योजन उसकी गहराई है और सोलह हजार योजन उसकी ऊंचाई है कुल मिलाकर सतरह हजार योजन उसका प्रमाण है तो हे भगवन् ! वह लवण समुद्र जंबूद्वीप नामक द्वीप को जल से आप्लावित क्यों नहीं करता, क्यों प्रबलता के साथ उत्पीड़ित नहीं करता और क्यों उसे जलमग्न नहीं कर देता? उत्तर - हे गौतम! जंबूद्वीप नामक द्वीप में भरत ऐरवत क्षेत्रों में अर्हन्त (तीर्थंकर), चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, जंघाचारण आदि बिद्याधर मुनि, श्रमण, श्रमणियां, श्रावक और श्राविकाएं हैं। वहां के मनुष्य प्रकृति से भद्र, प्रकृति से विनीत, उपशांत, प्रकृति से मंद क्रोध, मान, माया लोभ वाले, मृदु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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