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तृतीय प्रतिपत्ति- लवण समुद्र, जंबूद्वीप को जलमग्न क्यों नहीं करता ?
समाधान - यह शंका उचित है। जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण ने विशेषणवतीग्रंथ में कहा है - एवं उभयवेइयंताओ सोलससहस्सुस्सेहकन्नगईए जं लवण समुद्दाभव्वं जलसुन्नं पि खेत्तं तस्स गणियं । जहा मंदरपव्वयस्स एक्कारसभागपरिहाणी कण्णगईए आगासस्स वि तदा भव्वंति काउं भणिया तहा लवण समुद्दस्स वि। जब लवणशिखा के ऊपर दोनों वेदिकान्तों के ऊपर सीधी डोरी डाली जाती है तो जो अपान्तराल में जल शून्य क्षेत्र बनता वह भी करण गति से सजल मान लिया जाता है इसके लिये मेरु पर्वत का उदाहरण है। वह सर्वत्र एकादश भाग परिहानि रूप कहा जाता है किंतु सर्वत्र इतनी हानि नहीं है। कहीं कितनी है, कहीं कितनी है। केवल मूल से लेकर शिखर तक डोरी डालने पर अपान्तराल में जो आकाश है वह सब मेरु का गिना जाता है। ऐसा मान कर गणितज्ञों ने सर्वत्र एकादश परिभाग हानि का कथन किया है। लवण समुद्र के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिये ।
लवणसमुद्र, जंबूद्वीप को जलमग्न क्यों नहीं करता ?
जइ णं भंते! लवणसमुद्दे दो जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं पण्णरस जोयणसयसहस्साइं एक्कासीइं च सहस्साइं सयं इगुयालं किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं एगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं सोलस जोयणसहस्साइं उस्सेहेणं सत्तरस जोयणसहस्साइं सव्वग्गेणं पण्णत्ते । कम्हा णं भंते! लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीवं णो उवीलेइ णो उप्पीलेइ णो चेवणं एक्कोदगं करेइ ?
गोयमा ! जंबूद्दीवे णं दीवे भरहेरवएसु वासेसु अरहंत चक्क- -वट्टि बलदेवा वासुदेवा चारणा विज्जाहरा संमणा समणीओ सावया सावियाओ मणुया पगइभद्दया पगइविणीया पगइडवसंता पगइपयणुकोहमाणमायालोभा मिउमद्दवसंपण्णा अल्लीणा भद्दगा विणी, तेसि णं पणिहाए लवणे समुद्दे जंबुद्दीवं दीवं णो उवीलेइ णो उप्पीलेइ णो चेव णं एगोदगं करेइ गंगासिंधुरत्तारत्तवईसु सलिलासु देवयाओ महिड्डियाओ जाव पलिओवमट्ठियाओ परिवसंति, तासि णं पणिहाए लवणसमुद्दे जाव णो चेव णं एगोदगं करेइ, चुल्लहिमवंतसिहरेसु वासहरपव्वसु देवा महिड्डिया० तेसि णं पणिहाए० हेमवएरण्णवएसु वासेसु मणुया पगइभद्दगा०, रोहियंससुवण्णकूल - रुप्पकूलासु सलिलासु देवयाओं महिड्डियाओ० तासिं पणि० सद्दावइवियडावइ वट्टवेयड्डूपव्वएसु.. ! देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्ठिइया परिव०, महाहिमवंतरुप्पिसु वासहरपव्वसु
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