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________________ १८० जीवाजीवाभिगम सूत्र ................................•••••••••••••••••••••••••••••••• शिखा होने से अश्व स्कंध की आकृति वाला कहा गया है। दस हजार योजन प्रमाण विस्तार वाली शिखा वलभी-गृहाकार प्रतीत होने से लवण समुद्र वलभी-भवन की अट्टालिका-चांदनी के आकार का कहा गया है। लवण समुद्र गोल है तथा चूडी के आकार का है। टीकाकार ने लवण समुद्र के घन और प्रतर की गणना भी की है। प्रतर का परिमाण इस प्रकार है - वित्थाराओ सोहिय दस सहस्साइंसेस अद्धम्मि। तं चेव पक्खिवित्ता लवसमुदस्स सा कोडी॥ १॥ लक्खं पंचसहस्सा कोडीए तीए संगुणेऊणं। लवणस्स मन्झ परिहि ताहे पयरं इमं होइ॥ २॥ नवनउई कोडिसया एगट्ठी कोडि लक्ख सत्तरसा। पन्नरस सहस्साणि य पयरं लवणस्स णिहिट्ठ॥ ३॥ अर्थात् - लवण समुद्र के दो लाख योजन विस्तार में से दस हजार योजन घटा कर उसका आधा करने पर ९५००० की राशि होती है इस राशि में घटाये हुए दस हजार योजन मिलाने पर १०,५०० होते हैं। इस राशि को कोटि कहा जाता है। इस कोटि को लवण समुद्र की मध्यभागवर्ती परिधि ९४८६८३ से गुणा करने पर लवण समुद्र के प्रतर का परिमाण निकल आता है। वह राशि ९९६११७१५००० है। लवण समुद्र के घन की गणित इस प्रकार है - जोयणसहस्स सोलह लवणसिहा अहोगया सहस्सेणी पयरं सत्तरसहस्सगुणं लवणघणगणियं॥ १॥ सोलस कोडाकोडी ते णउइ कोडिसयसहस्साओ। उणयालीसहस्सा नवकोडिसया य पन्नरसा॥ २॥ पन्नास सयसहस्सा जोयणाणं भवे अणूणाई। लवणसमुदास्सेयं जोयणसंखाए घणगणियं॥ ३॥ - लवण समुद्र की १६००० योजन की शिखा और एक हजार योजन उद्वेध कुल १७००० को लवण समुद्र के प्रतर परिमाण ९९६११७१५००० से गुणा करने पर लवण समुद्र का घन निकल आता है वह है - १७०००४९९६११७१५०००=१६९३३९९१५५०००००० योजन। शंका - लवण समुद्र सब जगह सतरह हजार योजन प्रमाण नहीं है क्योंकि मध्य भाग में तो इसका विस्तार दस हजार योजन कहा फिर यह घन गणित कैसे सही हो सकती है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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