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________________ जीवाजीवाभिगम सूत्र हुए हैं। ये बारह हजार योजन लम्बे चौड़े हैं शेष परिधि आदि सारा वर्णन गौतमद्वीप के समान समझना चाहिये। ये प्रत्येक पद्मबरवेदिका और वनखण्ड से घिरे हुए हैं। दोनों का वर्णन कहना चाहिये। उन द्वीपों में बहुसमरमणीय भूमिभाग हैं यावत् वहां बहुत से ज्योतिषी देव उठते-बैठते हैं। तेसि णं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पासायवडेंसगा बावंट्ठि जोयणाइं० बहुमज्झ० मणिपेढियाओ दो जोयणाई जाव सीहासणा सपरिवारा भाणियव्वा तहेव अट्ठो, गोयमा! बहूसु खुड्डासु खुड्डियासु बहूई उप्पलाई• चंदवण्णाभाई चंदा एत्थ देवा महिड्डिया जाव पलिओवमंट्ठिझ्या परिवसंति, ते णं तत्थ पत्तेयं पत्तेयं चउन्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव चंददीवाणं चंदाण य रायहाणीणं अण्णेसिं च बहूणं जोइसियाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं जाव विहरंति, से तेणट्टेणं गोयमा ! चंददीवा जाव णिच्चा । १६४ कहि णं भंते! जंबुद्दीवगाणं चंदाणं चंदाओ णाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! चंददीवाणं पुरत्थिमेणं तिरियं जाव अण्णंमि जंबुद्दीवे दीवे बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता तं चेव पमाणं जाव एमहिड्डिया चंदा देवा २ ॥ भावार्थ - उन बहुसमरमणीय भूमिभागों में प्रासादावतंसक हैं जो साढे बासठ योजन ऊंचे हैं आदि वर्णन गौतमद्वीप की तरह समझना चाहिये मध्यभाग में दो योजन लंबी चौड़ी, एक योजन मोटी मणिपीठिकाएं हैं आदि सारा वर्णन सपरिवार सिंहासन तक पूर्वानुसार कह देना चाहिये । हे भगवन् ! ये चन्द्र द्वीप क्यों कहलाते हैं ? हे गौतम! उन द्वीपों की बहुत से छोटी छोटी बावड़ियों आदि में बहुत से उत्पल आदि कमल हैं। जो चन्द्रमा के समान आकृति और वर्ण वाले हैं और वहां पल्योपम की स्थिति वाले चन्द्र नामक महर्द्धिक देव रहते हैं । वे वहां अलग अलग चार हजार सामानिक देवों यावत् चन्द्र द्वीपों, चन्द्रा राजधानियों और अन्य बहुत से ज्योतिषी देव देवियों का आधिपत्य करते हुए अपने शुभ कर्मों का अनुभव करते हुए विचरते हैं। इस कारण हे गौतम! वे चन्द्रद्वीप कहलाते हैं । हे गौतम! वे चन्द्रद्वीप शाश्वत नाम वाले हैं, नित्य हैं । हे भगवन् ! जंबूद्वीप के चन्द्रमाओं की चन्द्रा नामक राजधानियां कहां कही गई हैं ? हे गौतम! चन्द्रद्वीपों के पूर्व में तिरछे असंख्यात द्वीप समुद्रों को पार करने पर अन्य जंबूद्वीप में बारह हजार योजन आगे जाने पर ये राजधानियां हैं। उनका प्रमाण आदि सारा वर्णन गौतम आदि राजधानियों के समान समझना चाहिये यावत् वहां चन्द्र नामक महर्द्धिक देव हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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