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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - वेलंधर नागराज का वर्णन १५३ का है। जंबूद्वीप की वेदिका और धातकीखंड की वेदिका के पास अंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण गोतीर्थ है। इसके आगे समतल भूभाग से लेकर क्रमशः प्रदेश हानि से तब तक उत्तरोत्तर नीचा नीचा भूभाग समझना चाहिये जहां तक ९५००० योजन की दूरी आ जाय। ९५००० योजन की दूरी तक समतल भूभाग की अपेक्षा एक हजार योजन की गहराई है। इसलिये जंबूद्वीप वेदिका और धातकीखंड वेदिका के पास उस समतल भूभाग में जल वृद्धि अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है। इससे आगे समतल भूभाग में प्रदेश वृद्धि से जलवृद्धि क्रमशः बढ़ती है, जब तक दोनों ओर ९५००० योजन की दूरी आ जाय। यहां समतल भूभाग की अपेक्षा सात सौ योजन की जलवृद्धि होती है। उससे आगे मध्यभाग में दस हजार योजन विस्तार में एक हजार योजन की गहराई है और जलवृद्धि सोलह हजार योजन प्रमाण है। पाताल कलशगत वायु के क्षुभित होने से उनके ऊपर एक अहोरात्र में (३० मुहूर्तों में) दो बार कुछ कम दो कोस प्रमाण अतिशय रूप से जल की वृद्धि होती है और जब पाताल कलशगत वायु उपशांत होता है तब वह जलवृद्धि नहीं होती है। लवण समुद्र की आभ्यंतर वेला अर्थात् जंबूद्वीप की ओर बढ़ती हुई शिखा और उस पर बढ़ते हुए जल को सीमा से आगे बढ़ने से रोकने वाले ४२००० नागकुमार देव हैं। लवण समुद्र की बाह्यवेलाधातकीखंड की ओर बढ़ती शिखा और उसके ऊपर की जलवृद्धि को रोकने वाले ७२००० नागकुमार देव तथा लवण समुद्र के अग्रोदक को रोकने वाले ६०००० नागकुमार देव, इस तरह कुल १,७४,००० एक लाख चौहत्तर हजार वेलंधर नागकुमार देव लवण समुद्र के जल को मर्यादा में रखते हैं। वेलंधर नागराज का वर्णन कई णं भंते! वेलंधरा णागराया पण्णत्ता? गोयमा! चत्तारि वेलंधरा णागराया पण्णत्ता, तंजहा-गोथूभे सिवए संखे मणोसिलए॥ एएसिणं भंते! चउण्हं वेलंधरणागरायाणं कई आवासपव्वया पण्णत्ता? गोयमा! चत्तारि आवासपव्वया पण्णत्ता, तंजहा-गोथूभे उदगभासे संखे दगसीमाए॥ भावार्थ - हे भगवन् ! वेलंधर नागराज कितने कहे गये हैं ? हे गौतम! वेलंधर नागराज चार कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. गोस्तूप २. शिवक ३. शंख और ४. मनःशिलाक। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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