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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - लवण समुद्र में जल हानि वृद्धि का कारण १४९ जीवा पोग्गला य जाव असासयावि, पत्तेयं पत्तेयं अद्धपलिओवमट्टिइयाहिं देवयाहिं परिग्गहिया॥ कठिन शब्दार्थ - खुड्डालिंजरसंठाणसंठिया - छोटे घड़े की आकृति वाले, खुड्डपायालकलसाछोटे पाताल कलश। भावार्थ - उन महापाताल कलशों के तीन त्रिभाग कहे गये हैं। यथा - १. नीचे का त्रिभाग २. मध्य का त्रिभाग और ३. ऊपर का त्रिभाग। ये प्रत्येक विभाग तेतीस हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन का त्रिभाग (३३,३३३२) जितने मोटे हैं। इनके नीचले त्रिभाग में वायुकाय है, मध्यम त्रिभाग में वायुकाय और अप्काय है और ऊपर के त्रिभाग में केवल अप्काय है। इसके अतिरिक्त हे गौतम! लवण समुद्र में इन महापाताल कलशों के बीच में छोटे कुंभ की आकृति के छोटे- छोटे बहुत से पाताल कलश हैं। वे छोटे-छोटे पाताल कलश एक-एक हजार योजन पानी में गहरे हैं, एक-एक सौ योजन की चौड़ाई वाले हैं और एक-एक प्रदेश की श्रेणी से वृद्धिंगत होते हुए मध्य में एक हजार योजन के चौड़े हो गये हैं, फिर एक-एक प्रदेश की श्रेणी से हीन होते हुए मुख मूल में ऊपर एक-एक सौ योजन के चौड़े रह गये हैं। . उन छोटे पाताल कलशों की भित्तियां सर्वत्र समान हैं और दस योजन की मोटी हैं। सर्व वज्ररत्नमय हैं, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं उनमें बहुत से जीव उत्पन्न होते हैं, निकलते हैं बहुत से पुद्गल एकत्रित होते हैं बिखरते हैं उन पुद्गलों का चय-अपचय होता रहता है। वे भित्तियां द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा शाश्वत हैं और वर्णादि पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत हैं। उन छोटे पाताल कलशों में प्रत्येक में अर्द्धपल्योपम की स्थिति वाले देव रहते हैं। तेसिं णं खुड्डागपायालाणं तओ तिभागा पण्णत्ता, तंजहा-हेट्ठिल्ले तिभागे मझिल्ले तिभागे उवरिल्ले तिभागे, ते णं तिभागा तिणि तेत्तीसे जोयणसए जोयणतिभागं च बाहल्लेणं पण्णत्ते। तत्थ णं जे से हेट्ठिल्ले तिभागे एत्थ णं वाउकाओ मज्झिल्ले तिभागे वाउकाए आउकाए य उवरिल्ले आउकाए, एवामेव सपुव्वावरेणं लवणसमुद्दे सत्त पायालसहस्सा अट्ठ य चुलसीया पायालसया भवंतीति मक्खाया॥ तेसि णं महापायालाणं खुड्डागपायालाण य हेट्ठिममज्झिमिल्लेसु तिभागेसु बहवे ओराला वाया संसेयंति संमुच्छिमंति एयंति चलंति कंपंति खुब्भंति घटुंति फंदंति तं तं भावं परिणमंति तया णं से उदए उण्णामिजइ, जया णं तेसिं महापायालाणं खुड्डागपायालाण य हेट्ठिल्लमज्झिमिल्लेसु तिभागेसु णो बहवे ओराला जाव तं तं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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